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________________ जैन विद्या 17 का विषय बना चुके हैं, फिर भी, उसकी वास्तविकता से अपरिचित रहे हैं । अधिकतर दार्शनिक यही मानते हैं कि हमारे अनुभव में जो वस्तुविषयक प्रत्यय चिन्तन-अनुभवन में आ रहा है, वही वास्तविक है । जिनशासन की वास्तविकता यही है कि जब तक सकल निरावरण-अखण्ड एक प्रत्यक्षप्रतिभासमय अविनश्वर शुद्ध पारिणामिक परमभाव लक्षण निज परमात्मद्रव्य-वह ही मैं हूँ-ऐसा वस्तु का यथार्थ स्वीकार स्व संवेदन ज्ञान नहीं होता है तब तक पूर्ण आनन्द के नाथ का न तो परमात्म-दर्शन होता है और न जिनशासन की पूर्ण स्वीकृति होती है। जिनशासन की स्वीकृति के बिना यह जैन ज्ञानी कैसे हो सकता है ? अतः आचार्य कुन्दकुन्द वास्तविकता से अनभिज्ञ को अप्रतिबुद्ध कहते हैं। जैसे-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि भावों में घड़ा है और घड़े में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण हैं, उसी प्रकार पुण्य-पाप के अन्तरंग परिणाम (भावकर्म) ज्ञानावरणादि जड़कर्म तथा नोकर्म-शरीरादि बहिरंग पुदगल परिणाम हैं-जब तक इस प्रकार भेद भासित नहीं होता तब तक वह अप्रतिबुद्ध है। सामान्यतः तत्त्व का अर्थ है-सार, ब्रह्म, आत्मा; और तत्त्वज्ञान का अर्थ हैंब्रह्मज्ञान, प्रात्मज्ञान । आत्मज्ञान अनुभूति का विषय है । अनुभूति के सिवाय आत्मज्ञान की उपलब्धि की अन्य कोई विधि नहीं है । अतएव 'तत्त्व' से हमारा अभिप्राय परमार्थ या द्रव्य स्वभाव से है । जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है । वास्तव में वस्तु के असाधारण धर्म को तत्त्व कहते हैं । इसे दूसरे शब्दों में वस्तुस्वरूप भी कह सकते हैं । वस्तु का स्वरूप ही वस्तु की असलियत है, वही यथार्थ है । प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं"द्रव्य स्वभाव से सिद्ध सत् है-ऐसा जिनदेव ने तत्त्वतः कहा है और इसी प्रकार आगम से सिद्ध है । जो इसे नहीं मानता, वह परसमय ही है।" जैन तत्त्वज्ञान की प्रथम विशेषता यह है कि इस में तत्त्व का निर्वचन भावसामान्य के रूप में किया गया है । क्या जड़ और क्या चेतन सभी पदार्थ भाववान हैं । अभाववान कोई वस्तु नहीं है । प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना भाव स्वतः सिद्ध है। किसी ने किसी वस्तु को उसके अपने भावरूप बनाया नहीं हैं । स्वभाव होने में कोई निमित्त या कारण नहीं है। जैनदर्शन में प्रत्येक पदार्थ नित्यपरिणामी माना गया है । जिस में अनन्त गुण बसते हैं उसे वस्तु कहा जाता हैं । जो प्रत्येक समय में गुण-पर्यायों को प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं । प्रत्येक द्रव्य अपने अन्वयरूप धर्म के कारण ध्रुवस्वभावी है तथा उत्पादव्ययरूप धर्म के कारण परिणामस्वभावी है ।' द्रव्य का परिणमनस्वभाव अहेतुक है । इस विशेषता के कारण ही द्रव्य की स्वतन्त्रता और द्रव्य में रहनेवाले गुणों की स्वतन्त्रता का उल्लेख जिनागम में किया जाता है । यदि गुण स्वतन्त्र न हों तो आत्मा में अनन्त चतुष्टय (अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य) तथा अनन्त गुण सिद्ध नहीं हो सकते । गुणों का समूह द्रव्य ही स्वतन्त्र नहीं माना गया है वरन् एक समय की पर्याय भी सत् व स्वतन्त्र कही गयी है । पर्याय की स्थिति एक समय मात्र है । अन्य समय में अन्य पर्याय
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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