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जैनविद्या
नहीं है क्योंकि सन्देह अपने आप में चेतना का एक आकार है । मैं चिन्तन करता हूँ इस - लिए मैं हूँ । लाइबनित्स के विचार में सारी सत्ता प्रभौतिक बिन्दुत्रों की है । जिन चिद्बिन्दुनों से सारी सत्ता बनी है वे एक दूसरे को प्रभावित नहीं करते, हर एक पूर्ण रूप में स्वाधीन है । इन बिन्दुनों में कोई खिड़की नहीं है जहाँ से कोई बोध भीतर आ सके, सम्पूर्ण ज्ञान आत्मज्ञान है । जैन दृष्टि से अध्यात्म में शुद्धात्मा का अनुष्ठान है । वीतराग परमानन्द को उपलब्ध होना ही अध्यात्म का ध्येय है । वास्तव में अध्यात्म में अनिर्वचनीय ज्ञानानन्द का रसास्वादन किया जाता है । उस में वीतराग स्व-संवेदनज्ञान की मुख्यता रहती है । अध्यात्म में कोई मत या सम्प्रदाय नहीं होता क्योंकि सभी चेतन जीवों की चेतना सामान्य है | जैनतत्त्वज्ञान की यही विशेषता है कि इस में सामान्य ग्राहक निर्विकल्पसत्तावलोकनरूप- दर्शन का वर्णन किया गया है ।
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यथार्थ में निजात्मा का दर्शन ही दर्शन है, अन्य तो प्रदर्शन मात्र है क्योंकि सामान्य अवलोकन रूप-दर्शन तो मिथ्यादृष्टियों के भी होता है किन्तु उनका परद्रव्य का जाननादेखना मन और इन्द्रियों के द्वारा होता है । आगम में दर्शन के चार भेद किए हैं- चक्षुदर्शन, प्रचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । इन चारों में प्राँखों से देखना चक्षुदर्शन और मन की सहायता से देखना अचक्षुदर्शन है । छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) अवस्था में आत्मा का अवलोकन मन से होता है । श्रात्म-दर्शन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम, क्षय से तत्त्वार्थश्रद्धान रूप होने से मोक्ष का कारण है । जिन को तत्त्व की रुचि व सच्चा श्रद्धान नहीं है उन को आत्मदर्शन नहीं होता । 10 ग्रात्म-दर्शन वस्तुतः निजात्मदर्शन है जो प्रतीन्द्रिय अवलोकन है, जिसके दर्शन में किसी भी ( मन, इन्द्रयादि) परावलम्बन की आवश्यकता नहीं होती । इसलिए अध्यात्मशास्त्र में लोक में सर्वत्र सभी से अधिक सुन्दर भगवान् शुद्ध स्वभावी चैतन्यघन प्रभु निज शुद्धात्मा की कथा ही कथा है, अन्य संयोग तथा संयोगी भावों का कथन करना विसंवाद आपत्ति है । 11
तत्त्व का विषय एक त्रैकालिक ध्रुव ज्ञायकभाव पदार्थ है । ज्ञायकभाव शुद्ध है । आचार्य उमास्वामी ने इसे ही तत्त्वार्थ कहा है । तत्त्व का अर्थ है - पदार्थ का भाव और अर्थ का शब्दार्थ है – पदार्थ | भाववान पदार्थ पूर्ण विज्ञानघन परमब्रह्म है । ज्ञानस्वरूपी आत्मा में रागादि पर्यायें हैं क्योंकि ज्ञान में राग नहीं हैं और राग में ज्ञान नहीं है । दोनों भिन्न इकाइयाँ है । अतः तत्त्वार्थ परम चैतन्यचमत्कार मात्र ध्रुवस्वभाव ज्ञायकभाव है । विभाव पर्यायें तो आत्मा के स्वभाव हैं नहीं, पर निर्मल पर्यायें भी बहिर्तत्त्व हैं | पर्याय अन्तः तत्त्व नहीं है । इसलिए जैन तत्त्वज्ञान में पर्याय को द्रव्य से भिन्न होने के कारण उसे गौर कर दिया है । अध्यात्म शुद्धनय का विषय है । शुद्धनय का अर्थ है - शुद्ध दृष्टि, शुद्ध का अनुभव । हमारी दृष्टि तभी शुद्ध हो सकती है जब शुद्ध द्रव्य का श्राश्रय लें । अशुद्ध वस्तु के साथ रह कर, उसका लक्ष्य कर शुद्धता कैसे प्रकट हो सकती है ? यहीं पर दृष्टि और दृष्टि का विषय हमारे सामने प्रस्तुत हो जाते हैं । शुद्धनय और उसके विषय को समझे बिना जिनप्ररूपित तत्त्वज्ञान में प्रवेश नहीं हो सकता ।