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________________ जैन विद्या छठी शती ईस्वी पर्यन्त कई तिथियाँ सामने आई हैं21 किन्तु, लोकप्रचलित अनुश्रुति के अनुसार वे 33 वर्ष की आयु में वि. सं. 49 (अर्थात् ईसा पूर्व-8) में प्राचार्य-पट्ट पर आसीन हुए, 52 वर्ष उनका प्राचार्यकाल रहा, 85 वर्ष की वय में, सन् 44 ई. में उनका निधन हुआ 122 ऐसा प्रतीत होता है कि वे प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीय और प्राचार्य अर्हद्बलि के समसामयिक रहे । भिन्न-भिन्न पट्टावलियों में उक्त दोनों प्राचार्यों की तिथियाँ कुछ भिन्न-भिन्न हैं, जिनकी पूर्वावधि ईसा पूर्व 53 और उत्तरावधि सन् 66 ई. प्राप्त होती है । ऐसा असन्दिग्ध रूप से प्रतीत होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द न केवल 79 ई. में निष्पन्न दिगम्बर-श्वेताम्बर संघभेद23 से पूर्व हो चुके थे वरन् मूलसंघ के नन्दि, सेन, सिंह, भद्र, देव आदि संघों में विभक्त होने से भी पहिले हो चुके थे और धरसेन-पुष्पदंत-भूत बलि द्वारा (लगभग 75 ई. में) षट्खण्डागम-सिद्धान्त के रूप में कम्म-पयडि-पाहुड नामक आगम के पुस्तकारूढ़ किये जाने से भी पूर्व हो चुके थे । साहित्यिक एवं शिलालेखीय अनुश्रुतियों में कुन्दकुन्द का उल्लेख सदैव उमास्वामी और समन्तभद्र के पूर्व हुआ है। उमास्वामी विरचित तत्वार्थाधिगमसूत्र के सुप्रसिद्ध टीकाकार देवनन्दि पूज्यपाद (लगभग 500 ई.) समन्तभद्र का तो नामोल्लेख करते ही हैं और उनके उद्धरण भी देते हैं, कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से भी उद्धरण देते हैं । कुन्दकुन्द के परवर्ती जैनाचार्यों एवं ग्रन्थकारों की निर्णीत तिथियाँ यह प्रायः सुनिश्चित कर देती हैं कि स्वयं कुन्दकुन्द प्रथम शती ई. के मध्य से पूर्व ही हुए होने चाहिये । प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती ने कुन्दकुन्दाचार्य का समय प्रथम शती ई. निर्धारित किया24, डॉ. ए. एन उपाध्ये ने विभिन्न मतों तथा प्राप्त साधन-स्रोतों की विशद समीक्षा करके प्रायः उसी समय का समर्थन किया ।25 कुन्दकुन्द की कृतियों में प्राप्त प्राकृत भाषा का रूप भी इसी मत की पुष्टि करता है । मथुरा का कुमारनन्दि विषयक पूर्वोक्त शिलालेख26 वर्ष 87 का है, संख्यापाठ कुछ अस्पष्ट है और वह 67 हो सकता है। यतः लेख में ऐसा कोई संकेत नहीं है जिससे उसे कुषाणकालीन (78 ई. का पश्चाद्वर्ती) कहा जा सके, यह सम्भावना है कि उक्त वर्ष संख्या ईसापूर्व 66 में प्रारम्भ होनेवाले प्रथम शक संवत् की हो अर्थात् सन् ईस्वी 1 या 21 का वह लेख है । अतः यह सम्भव है कि कुन्दकुन्द का इन्हीं कुमारनन्दि के साथ साक्षात् सम्पर्क रहा हो और उन्हें वे गुरुतुल्य मानते हों। डॉ० रामकृष्ण गोपाल भंडारकर के कथनानुसार प्राचार्य कुन्दकुन्द उन प्राचीनतम दिगम्बर ग्रन्थकारों में से हैं जिनकी कृतियों का उल्लेख अनेक परवर्ती साहित्यकारों ने किया है ।27 पीटरसन की रिपोर्ट में भी इन्हें एक अत्यन्त प्राचीन एवं ख्यातिप्राप्त प्राचार्य रहा बताया है ।28 वस्तुतः स्वयं कुन्दकुन्द तो अपने ग्रन्थों में किसी भी पूर्ववर्ती ग्रन्थकार का उल्लेख नहीं करते जिसका कारण यही प्रतीत होता है कि ऐसा कोई लेखक रहा ही नहीं । मूल द्वादशांग-श्रुतागम के साथ उनका सीधा सम्बन्ध असंदिग्ध प्रतीत होता है। उसकी ओर. जब भी वे संकेत करते हैं, सहज सामान्य रूप में ही करते हैं । उनकी कृतियों का पारम्परिक प्रागमिक रूप इस तथ्य से भी प्रमाणित है कि उनमें अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर आगम सूत्रों से अभिन्न हैं । तीर्थंकरोत्तरकाल की प्राथमिक शताब्दियों में तो वैसे वाक्य अविभक्त पूरे संघ की समानरूप से सम्पत्ति थे और जब संघभेद की भूमिका बनने लगी तो दोनों दलों ने उनके संरक्षण का स्वतन्त्ररूप से प्रयास किया ।29 इस सब विवेचन
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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