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________________ जैनविद्या से यह स्पष्ट है कि भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य प्रथम शती ई. के पूर्वार्ध में हुए हैं और उनका आचार्यकाल ईसा पूर्व 8 से लेकर सन् 44 ई. पर्यन्त रहा । 4 आचार्य के विषय में प्रचलित अनुश्रुति है कि मौखिकरूप से प्रवाहित होता प्राया द्वादशांग - श्रुतागम का जो ज्ञान उन्हें गुरु परम्परा से प्राप्त हुआ था उसीका उपसंहार करके अथवा उसे ही आधार बनाकर उन्होंने प्राकृत भाषा में अपने छोटे-बड़े 84 पाहुडों ( प्राभृतों ) की रचना की थी। उनकी कृतियों में कहीं-कहीं जैनेतर सन्दर्भों का भी संकेत है और कभी-कभी पूर्वकाल में हुए कतिपय व्यक्तिविशेषों के भी उल्लेख व्यक्ति ऐतिहासिक रहे हो सकते हैं । 30 आधुनिक युग में उनकी प्रायः सभी उपलब्ध रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं और उनके प्रमुख ग्रन्थों के विस्तृत समीक्षात्मक प्रस्तावनाओं से युक्त सुसम्पादित संस्करण प्राप्त हैं। कई शोध छात्रों के कुन्दकुन्द साहित्य के दार्शनिक, सांस्कृतिक, भाषा वैज्ञानिक आदि अध्ययन भी शोधप्रबन्धों के रूप में विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्रस्तुत किये जा चुके हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्द की सुविदित एवं उपलब्ध कृतियां निम्नोक्त हैं- 1. समयसार, 2. प्रवचनसार, 3. पंचास्तिकायसार - ये तीनों समुच्चय रूप से प्राभृतत्रय या सारत्रय भी कहलाते हैं जिनकी प्रामाणिकता एवं महत्ता जैन परम्परा में वैसी ही मान्य है जैसी कि वेदान्तियों में प्रस्थानत्रय की है। 4. नियमसार, 5. रयणसार ( इस ग्रन्थ का उपलब्ध रूप कुछ विवादास्पद है) 6-15 अष्टपाहुड कुन्दकुन्द रचित प्राठ प्राभृतों का संग्रह है, उन कुछ अन्य पाहुड भी शास्त्र भंडारों में प्राप्त हुए हैं । दशपाहुडों का भी एक संकलन प्रकाशित है । 32 इन पाहुड ग्रन्थों में यत्र-तत्र कतिपय उपयोगी ऐतिहासिक सूचनाएँ भी प्राप्त हैं। 16. बारस प्रणुवेक्खा ( द्वादशानुप्रेक्षा ), 17-26 दशभक्ति । इनके अतिरिक्त मुनिधर्म के प्रतिपादक प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ मूलाचार के कर्तृत्व का श्रेय भी कुछ विद्वान् कुन्दकुन्द को ही प्रदान करते हैं । उसके कर्ता के रूप में सामान्यतया किन्हीं वट्टकेराचार्य की प्रसिद्धि है जो कुन्दकुन्द ही का एक उपनाम रहा अनुमान किया जाता है । 33 इन्द्रनन्दि के अनुसार कुन्दकुन्द ने पुस्तकारूढ़ आगमों के एक अंश पर परिकर्म नाम की टीका भी रची थी किन्तु विबुध श्रीधर के अनुसार उस टीका के कर्त्ता कुन्दकुन्दाचार्य के एक शिष्य कुन्दकीर्ति थे । 34 यह मत सत्य के अधिक निकट प्रतीत होता है। तमिल देश में प्रचलित एक अनुश्रुति के अनुसार विश्वप्रसिद्ध तमिल नीतिकाव्य कुरल या थिरुकुरल के जो तमिल - वेद भी कहलाता है, रचयिता भी यही कुन्दकुन्दाचार्य अपरनाम एलाचार्य थे, उन्होंने इस ग्रन्थराज को अपने गृहस्थ शिष्य तिरुवल्लवर के माध्यम से तमिल-संगम में प्रविष्ट कराया बताया जाता है। वस्तुतः कुन्दकुन्दादि जैनाचार्यों का प्राचीन तमिल संगम की साहित्यिक प्रवृत्तियों में प्रभूत प्रेरणा एवं सक्रिय योगदान रहा है, यह तथ्य प्रायः सर्वत्र स्वीकृत है । 35 कुन्दकुन्द - साहित्य के संस्कृत टीकाकारों में अमृतचन्द्राचार्य ( दसवीं शती ई.) जयसेन (1150 ई.) बालचन्द्र ( 1176 ई.) पद्मप्रभ मलधारिदेव ( 1185 ई.) भट्टारक श्रुतसागर (लगभग 1500 ई.) आदि और हिन्दी टीकाकारों में पांडे रूपचन्द, पं. बनारसीदास, पं. जयचन्द छाबड़ा आदि उल्लेखनीय हैं । कुन्दकुन्द के अद्यावधि ज्ञात
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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