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________________ जैनविद्या उत्तरवर्ती साहित्य एवं शिलालेखों में इन प्राचार्य के लिए कई नाम या उपनाम प्रयुक्त हुए मिलते हैं । शिलाभिलेखों में सामान्यतया कोण्डकुन्द नाम प्राप्त होता है-उसी का संस्कृत रूप कुन्दकुन्द है । देवसेन और जयसेन ने उनके लिए पद्मनन्दि नाम का प्रयोग किया है। 14वीं शती ई. तथा उपरान्त के कई अभिलेखों तथा ग्रन्थकारों ने वक्रग्रीव, गृद्धपिच्छ और एलाचार्य उनके उपनाम सूचित किये हैं।' अन्य उपनाम महामति और वट्टकेर सुझाये गये हैं । प्राचार्य स्वयं अपने विषय में प्रायः कोई सूचना प्रदान नहीं करते, केवल उनकी बारस-अणुवेक्खा के अन्त में कर्त्तारूप में 'कुन्दकुन्द' नाम प्राप्त हैं और बोधपाहुड के अन्त में वह स्वयं को भद्रबाहु का शिष्य रहा सूचित करते हैं ।10 आचार्य के जीवनचरित्र-विषयक कुछ लोकानुश्रुतियां भी प्रचलित हैं किन्तु वे मिथक या काल्पनिक प्रतीत होती हैं, अतएव विश्वसनीय नहीं हैं ।11 इसी प्रकार, चारणऋद्धि या आकाशगामिनी विद्या, विदेहगमन आदि कई चामत्कारिक शक्तियाँ भी उनमें रही बतायी जाती हैं किन्तु उनके सत्यासत्य के विषय में कुछ भी कहना कठिन है ।12 जहाँ तक गुरु का प्रश्न है प्राचार्य स्वयं सूचित करते हैं कि उनके गुरु भद्रबाहु थे किन्तु उनके टीकाकार जयसेन (1150 ई.) के अनुसार कुन्दकुन्द के गुरु कुमारनन्दि थे13 जबकि नन्दिसंघ की एक पट्टावली के अनुसार कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्र थे जो स्वयं माघनन्दि के शिष्य और अहबलि के प्रशिष्य थे।14 इन तीनों आधारों में पट्टावली को निबद्ध करने का समय भी सबसे पश्चाद्वर्ती है, बल्कि अन्य पट्टावलियों, गुर्वावलियों आदि की भांति उसका अन्तिम व्यवस्थीकरण एवं सम्पादन तो और भी बाद में हुआ होगा । मथुरा से प्राप्त ईस्वी सन् के प्रारम्भ के आसपास के एक शिलालेख में कुमारनन्दि नाम के एक जैनाचार्य का उल्लेख है ।15 कुन्दकुन्द के समय तक भद्रबाहु नाम के दो प्राचार्य हो चुके थे, उनमें से कौन से अभिप्रेत हैं, इस सम्बन्ध में कुछ विवाद है16 किन्तु ऐसा लगता है कि कुन्दकुन्द का प्राशय भद्रबाहु द्वितीय (ईसापूर्व 37-14) से है । . ____ इस विषय में कोई सन्देह नहीं है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द दक्षिणात्य थे । उनका नाम कोण्डकुन्द द्रविडदेशीय प्रतीत होता है और कन्नडी प्रदेश के किसी ग्राम या नगर जैसा लगता है ।17 ऐसे स्थलनामाश्रित साहित्यिक उपनामों का प्रचलन द्रविड देशों में रहा भी है और कई जैन गुरुओं के ऐसे नाम प्राप्त भी हैं, यथा तुम्बलूर ग्राम निवासी तुम्बलूराचार्य । उत्तरकालीन लेखकों ने तो स्पष्टतया कथन किया है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द कोण्डकुन्द नगर के निवासी थे ।18 आज भी गुन्तकल रेल-स्टेशन से 6-7 कि. मी. की दूरी पर स्थित इस नाम का एक ग्राम विद्यमान है जिसे इन्हीं प्राचार्य के जीवन से सम्बद्ध माना जाता है और कहा जाता है कि उन्होंने उक्त ग्राम की निकटवर्ती एक गुफा में तपश्चरण किया था ।19 ऐसी ही एक अनुश्रुति उनका सम्बन्ध नन्दिपर्वत के साथ जोडती है।20 . कुन्दकुन्दाचार्य का समय-निर्धारण भी पर्याप्त ऊहापोह का विषय रहा है । अनेक आधुनिक विद्वानों ने इस दिशा में प्रयास किये और चौथी शती ईसा पूर्व से लेकर
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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