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________________ जैनविद्या महिमामंडित कहीं नहीं किया गया जितना कि 'अमृताशीति' के 14वें से 25वें छन्द तक प्राप्त होता है । यथा मुक्त्वाऽलसत्त्वमधि सत्त्ववलोपपन्नः स्मृत्वा परां च समतां कुलदेवतां त्वम् । सज्ञानचक्रमिदमंगग्रहाणतूर्ण-मज्ञानमंत्रिपुतमोहरिपूप मदि ॥ 19 ॥ कालत्रयेऽपि भुवनत्रयं वर्तमानं सत्त्वप्रमाथिमदनादि महारयोऽमि । पश्याशनाशमुपयान्ति दृशैव यस्याः सा सम्मतमनुसतां समतैव देवी ॥ 21 ॥ इस प्रकार ग्रंथकार 'समता' को कुलदेवता (छंद 19), देवी (छंद 21), शरणस्थली16, मैत्यादि की सखी आदि अनेकों विशेषणों से छायावाद जैसी शैली में संबोधित करते हैं। (स) गुरु का महत्त्व ___ जैसे परवर्ती हिन्दी रहस्यवादी साहित्य में कबीर आदि संतों ने गुरु के रूप को अत्यन्त गौरव प्रदान किया है उसी प्रकार 'अमृताशीति' में भी कई स्थलों पर, जैसे पाराध्यधीरचरणौ सततं गुरुणां लब्धवा ततः दशममार्ग वरोपदेशम । तस्मिन् विदेहि मनसस्थिरतां प्रयत्नाच्छोषं प्रयाति तव येन भवापगेयम् ।। 27 ॥ गुरु की अपार महिमा व अनिवार्यता प्रदर्शित की गई है । यह वर्णन प्रात्महित में देव-शास्त्र-गुरु के निमित्तरूप प्रतिपादित सामान्य महत्त्व से हटकर भिन्न शैली में प्रस्तुत किया गया है। (द) हठयोग शब्दावली हठयोग व योगशास्त्रीय शब्दों का किंचित् प्रयोग यद्यपि 'योगसार' (दोहा-98) में भी पाया है, परन्तु 'अमृताशीति' में प्रचुरमात्रा में इस शब्दावली का प्रयोग है । कई शब्द तो ऐसे भी हैं जिनका प्रयोग जोइन्दु ने 'योगसार' में भी नहीं किया है । यथा-स्वहंसहरिविष्टर, अर्हत्-हिमांशु, हैं मंत्रसार, द्वेकाक्षरं पिण्डरूप, अनाहत ध्वनति, बिन्दुदेव योगनिद्रा, नालिद्वार, हृदयकमलगर्भ, श्रवणयुगल मूलाकाश तथा सवारसार18 आदि । इन शब्दों का प्रयोग उन्होंने जैन रहस्यवादी या आध्यात्मिक अर्थों व ध्यान की प्रक्रिया के संदर्भो में किया है । इसमें कुछ छंद तो ऐसे हैं जो कि विशुद्ध योगशास्त्रीय व रहस्यवादी धारा का चरमोत्कर्ष प्रस्तुत करते हैं ।19 जैसे भ्रमरसदृशंकेशं वपुरजरमरोगं मस्तकं दूरदृष्टि मूलनादप्रसिहेः ।
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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