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________________ जनविद्या 69 जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी । फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह जथ कथौ गियानी ॥ ज्यं बिब हिं प्रतिबिम्ब समाना, उदक कुम्भ विगराना। कहै कबीर जानि भ्रम भागा, वहि जीव समाना ॥27 अविद्या या भ्रम के नष्ट हो जाने पर प्रात्मा की निरंजनावस्था प्रकट हो जाती है । जैन-जैनेतर कवियों ने इसी अवस्था को परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त किया है । सिद्ध सरहपाद और गौरखनाथ ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है । अतएव यह कथन सही नहीं लगता कि निरंजन नामक कोई पृथक् सम्प्रदाय था28 जिसका लगभग बारहवीं शताब्दी में उदय हुआ होगा ।29 डॉ. त्रिगुणायत ने निरंजन संप्रदाय का संस्थापक कबीरवंशी हरीदास को बताया है । यह भ्रममात्र है । निरंजन नामक न तो कोई सम्प्रदाय था और न उसका संस्थापक हरीदास अथवा निरंजन नामक कोई सहजिया बौद्ध सिद्ध ही था । हां, यह अवश्य है कि हरीदास (सं० 1512-95) नामक निरंजन संत ने डीडवाना (राजस्थान) क्षेत्र में इस दर्शन का प्रचार किया था। परन्तु इस शब्द का प्रयोग तो आत्मा की उस सर्वोच्च अवस्था के लिए आगमकाल से होता रहा है जिसमें माया अथवा अविद्या का पूर्ण विनाश हो जाता है । योगीन्दु ने इस शब्द का प्रयोग बहुत किया है (प. प्र. 1.17, 123) । जासु ण वण्णु ण गंधु रसु न सुण सद्दु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु णवि गाउ, निरंजणु तासु ॥ जासु ण कोहु ण मोहु मउ, जासु ण माय ण माणु । जासु ण ठाणु ण झाण जिय, सो जि णिरंजणु जाणु ॥ प्रत्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु, अस्थि ण हरिसु विसाउ । अस्थि ण एक्कु वि दोसु जसु, सो जि णिरंजणु भाउ ॥ प. प्र. 1.19-21 अध्यात्म के क्षेत्र को प्रेम और भावना ने भी बहुत सिंचित किया है । आस्तिकता और सद्गुरु भक्ति से उसका महत्त्व किसी तरह कम नहीं प्रांका जा सकता । साहित्य के क्षेत्र में इसे भक्ति-प्रपत्ति कहा जाता है। प्रपत्ति का तात्पर्य है अपने इष्टदेव की शरण में जाना । साधक की भक्ति उसे इस प्रपत्ति की ओर ले जाती है । अनुकूल का संकल्प अथवा व्यवहार करना, प्रातिकूल्य का छोड़ना, भगवान् रक्षा करेंगे ऐसा विश्वास होना, भगवद्गुणों का वर्णन, आत्मनिक्षेप और दीनता इन छः अंगों के माध्यम से भक्त अपने आराध्य की शरण में जाता है ।30 इन अंगों में 'भगवान् रक्षा करेंगे' जैसे अंग तो योगीन्दु में हैं ही नहीं, पर उन्होंने अपने ग्रन्थों में व्यवहारनय से भक्तितत्त्व को प्रोझल नहीं किया । "जिणवर बदंऊं भत्तियए' कहकर उन्होंने प्रभाकर भट्ट को प्रारम्भिक सात गाथानों में भक्ति का उपदेश दिया है और उसे परम्परया मोक्ष का कारण माना है (प. प्र. 2.61-72)। योगीन्दु का रहस्यवाद साधनाप्रधान था, पर कबीर ने साधना और भावना दोनों का समन्वितरूप साधा। इसके बावजूद उनकी साधना में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी और कृष्णभक्त कवियित्री मीरा जैसी भावनात्मक तन्मयता नहीं थी। फिर भी कबीर के "हरि न मिले विन हिरदै सूध," "हिरदै
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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