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________________ 68 जनविद्या योगीन्दु ने आत्मा की शुद्ध, बुद्ध, सचेतन, केवल ज्ञानस्वभावी आदि विशेषताओं को प्रदर्शित करते हुए रत्न, दीप, सूर्य, दही, घी, पाषाण, सोना, चांदी, स्फटिकमणि और अग्नि के दृष्टान्तों से उसके स्वरूप को स्पष्ट किया है । तथ्य को असाम्प्रदायिक बनाने की दृष्टि से उन्होंने आत्मा को ही शिव, शंकर, बुद्ध, रुद्र, जिन, ईश्वर, ब्रह्मा, सिद्ध आदि संज्ञाओं से अभिहित किया है ।24 वह निश्चय नय से शुद्ध, बुद्ध और निराकार है, पर व्यवहार नय से वह शरीरप्रमाण आकार ग्रहण करता है, कर्ता और भोक्ता है (प. प्र. 1.40,50-55) । जैनधर्म में परम्परा से ही आत्मा की तीन अवस्थाओं का वर्णन मिलता है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। देह और आत्मा को एक माननेवाला बहिरात्मा है और उनको पृथक् माननेवाला अन्तरात्मा है जिसे पण्डित भी कहा गया है । परमात्मा आत्मा की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है जिसे नित्य, निरंजन और परमविशुद्ध माना गया है (प. प्र. 1.13-17) । प्रात्मा न गौर वर्ण का है न कृष्ण वर्ण का, न सूक्ष्म है न स्थूल है, न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न वैश्य है और न शूद्र; न पुरुष है न स्त्री और न नपुंसक है, न तरुण, वृद्ध आदि । वह तो इन सभी सीमाओं से परे है । उसका वास्तविक स्वरूप तो शील, तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समन्वित रूप है प्रप्पा बंभणु वइसु ण वि खत्तिउण वि सेसु । पुरिसु पाउसउ इत्थि ए वि पारिणउ मुणइ असेसु ।। 87 ।। अप्पा वदंउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ग होइ । अप्पा लिंगउ एक्कु ण वि पाणिउ जाणइ जोइ ।। 88 ।। अप्पा गुरु रणवि सिस्सु णवि णवि सामिउ रणमि भिच्चु ।। सूरउ कायरु होइ गवि गवि उत्तमु एवि णिच्चु ।। 89 ।। प. प्र. . इन गाथाओं में प्रतिबिंबित भाव को कबीर की निम्न पंक्तियों में आसानी से देखा . जा सकता है साधो, एक रूप सब मांहि । अपने मनहि विचार के देखो, और दूसरो नाहि ॥ एक, त्वचा, रुधिर पनि एकै विप्र सुद्र के मांही॥ कहीं नारि कहीं नर होइ बौले गैब पुरुष वह नाहीं ॥ कबीर ग्रन्थावली कबीर ने जीव और ब्रह्म को पृथक् नहीं माना । वह तो अपने-आपको अविद्या के कारण ब्रह्म से पृथक् मानता है । अविद्या और माया के दूर होने पर जीव और ब्रह्म अद्वैत हो जाते हैं—सब घटि अतंरि तू ही व्यापक घटै सरूप सोई ।25 आत्मज्ञान शाश्वत सुख की प्राप्ति करनेवाला है जिसे भेदविज्ञान कहा जा सकता है । वह सर्वव्यापक है, अविनाशी है, निराकार और निरंजन है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा ज्योतिस्वरूप है ।26 इसे आत्मा का पारमाथिक स्वरूप कह सकते हैं। उसका व्यावहारिक स्वरूप माया अथवा अविद्या से आवृत स्थिति में दिखाई देता है। वही संसार में जन्म-मरण का कारण है । मिथ्यात्व और माया के नष्ट हो जाने पर प्रात्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाता
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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