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________________ जनविद्या प्राचार्य कुन्दकुन्द, प्राचार्य उमास्वामी, प्राचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्रादि के समान बंध हेतुत्रों का उल्लेख जोइन्दु स्पष्ट शब्दों में नहीं करते तथापि स्थिति-अनुभाग बंध के मूल कारणों को वे प्राकृत प्रवाह में ही सुस्पष्ट कर देते हैं । उनके अनुसार बंध के मूल हेतु मिथ्यादृष्टिसम्पन्नभाव (मिथ्यात्व) और रागादि परिणाम हैं। इस विषय में उनकी स्पष्टोक्ति द्रष्टव्य है पज्जय-रत्तउ जीवडउ मिच्छादिछि हवेइ । बंधइ बहुविह-कम्मडा जे संसार भमेइ ॥ 1.77 अर्थात् नरनारकादि विभाव पर्यायों में रत मिथ्यादृष्टि जीव उन सभी बहुविध कर्मों को बांधता है जो उसे संसार में भ्रमण कराते हैं। मिथ्यात्व से उपार्जित कर्मों की शक्ति भी उन्होंने सुस्पष्ट की है। कम्मई दिढ-घण-चिक्कणई गरुवई वज्जसमाई। णाणविक्खणु जीवडउ उप्पहि पाहिं ताई ॥ (1.78) अर्थात् मिथ्यात्व द्वारा अर्जित कर्म बलिष्ठ, घने, सचिक्कण, गुरु और वज्र के समान होकर ज्ञानविलक्षण जीव को भी उत्पथ में पटक देते हैं । इस प्रकार मुनिराज जोइन्दु मिथ्यात्व को बंध का प्रमुख व प्रबल कारण स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं अपने इस कथन को वे व्यतिरेक विधान से भी दृढ़ करते हैं । व्यतिरेक विधान है आत्मा को अपने स्वरूप से जानता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव शीघ्र ही कर्मों को छोड़ता है (2.76)। यदि सम्यक्त्व कर्मों से मुक्ति का कारण है तो सम्यक्त्वविरोधी मिथ्यात्व कर्मों के बन्धन का कारण क्यों नहीं? सुतरां सिद्ध ही है । कितना सीधा और सरस प्रस्तुतीकरण है उनका मिथ्यात्व को बंध का हेतु बताने में । . ___ मोह के मूलतत्त्व हैं—मिथ्यात्व और कषायपरिणाम । तभी तो मोह कर्म के उदय में जीव मिथ्यात्व और कषाय परिणति युक्त होते हैं । जीव में मिथ्यात्व के बिना कषायें रह सकती हैं पर कषायों के बिना मिथ्यात्व नहीं रह सकता । अतः मोह का मूलतम तत्त्व मिथ्यात्व जानना चाहिये । सभी प्राचार्यों और विद्वानों ने मोह को निर्विवादतः बंध का कारण माना है । जोइन्दु कहते हैं-जिस मोह से कषायें उत्पन्न होती हैं उस मोह को तू छोड़ क्योंकि मोह और कषायों से रहित जीव ही समभाव पाता है (2.42) और उसे ही मोह गलने से सम्यक्त्व होता है (1.85)। . सुस्पष्ट है कि मोह सम्यक्त्व या समभाव प्राप्ति में बाधक कारण है । अर्थात् बाधाओं का जनक है । आत्मा के लिए बाधक कौन हैं ? ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म और मोह रागद्वेषादि मावकर्म ही तो बाधक हैं । इस प्रकार मोह या मिथ्यात्व आत्मा के प्रतिबन्धकबाधक कर्मों का कारण है । जोइन्दु मोह को कर्मोपार्जन में मूलकारण स्वीकारते हैं अतः उनका कथन है भुंजंतु वि णियकम्मफलु मोहई जो जि करेइ । भाउ प्रसुंदर सुंदर वि सो परकम्मु जणेइ ।। 2.79
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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