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________________ परमप्पयासु में बंध-मोक्ष संबंधी विचार - -श्री श्रीयांशकुमार सिंघई मुनिवर जोइन्दु का परमप्पयासु, सचमुच, एक ऐसे पिपासु की चिरपिपासा को परितृप्त बनाने में प्रेरणाभूत है, जो अमरत्व के चिद्विन्दुओं से संतृप्त होता हुआ परमत्व के परम प्रकाश से पालोकित-पालोडित होना चाहता है । प्रत्येक प्राणी अपनी इच्छाओं के उत्स में उस रहस्य का अन्वेषण करना चाहता है जिसके साहचर्य या प्रभाव से अक्षय आनन्द की प्राप्ति अथवा आकुलवृत्ति का परिहार होता हो । एतदर्थ अपरिहार्य पुरुषार्थ की प्रेरणा देने में परमप्पयासु अपनी शब्दरश्मियों से पाठक की बुद्धि को उस रहस्य रंगमंच पर पहुंचा देता है जहां वह प्रात्मालोचन की प्रक्रिया के फलस्वरूप शैथिल्य, अन्धविश्वास एवं धर्माडम्बर के घटाटोप से व्यावृत्त होकर अध्यात्म अर्थात् आत्मकेन्द्रित रहस्य को ही परमत्व प्राप्ति का परम उत्स समझने लगता है। ___जैनेश्वरी देशना तथा युक्ताश्रयणी बुद्धि के नियोग से इस जगत् में षड्-विध अनन्त सत् हैं । आत्मा भी उनमें एक सत् है जिसकी त्रिविध अवस्थाएं ही बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा हैं । मुनिराज जोइन्दु का प्रस्तुत ग्रन्थ नाम से परमप्पयासु (परमात्मप्रकाश) भले हो परन्तु उसमें केवल परमात्मदशा का ही प्रकाश नहीं है अपितु बहिरप्पा (बहिरात्मा) और अन्तरप्पा (अन्तरात्मा) का भी है । ऐसा क्यों ? विचारतः ज्ञात होता है कि मुनिराज जोइन्दु स्वभावतः आत्मा को परम ही मानते हैं । उनके अनुसार प्रात्मा ही परमात्मा है ।
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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