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________________ 92 जैनदिवा मृगांक की सहायता के लिए जाते हुए राजा श्रेणिक केरलपुरी की तरफ ससैन्य बन रहा है । विन्ध्याटवी लांघकर जब वह विन्ध्यप्रदेश में प्रविष्ट होता है तब कवि विन्ध्यप्रदेश ने सौन्दर्य का वर्णन करना नहीं भूलता । सौन्दर्यवर्णन के प्रसंग में भला वह स्त्रियों को करे मुला सकता है यहां की कृषक वधुएं इतनी आकर्षक हैं कि उनकी छोक्कार ध्वनि से प्राकृष्ट होकर पथिक तो क्या शुक और मृग भी एक पग आगे नहीं बढ़ पाते । गोपियां गीत गाती तथा नर्मपुर नामक पट्टन में रहनेवाली प्रियतमों की लाडलियाँ कुल-बालिकायें गिरितनय के सौभाग्य को भी जीत लेती हैं ।।1 पद्मश्री आदि कन्याओं और कुमार के पितृजनों ने धनराशि में शुक्ल (पद्म) पक्ष की अक्षय तृतीया के दिन इनका विवाह-लग्न निश्चित किया । पांचों ही गृहों में विवाह की तैयारियां होने लगती हैं, हंसी-खुशी का माहौल बनने लगता है तो कवि सारी पृथ्वी पर ही प्रसन्नता बिखेरने हेतु विलास करते-मदमाते बसंत को ले आता है । उसका बसंत ऐसे ही नहीं या जाता अपितु विविध प्रदेशों की ललनामों-स्त्रियों को प्रभावित करते पाता है "विद्याधर मानिनियों का मानमर्दन करनेवाला सुहावना मलय पवन चलने लगता है तो केरलियों की कुटिल केशरचना को सरल बनाता हुआ, विरहिणी तैलंगिनियों के निःश्वास उत्पन्न करता हुआ, सह्याद्रि के सूखे बांसों को रुणरुणाता हुआ, कर्णाटियों के कर्णावतंसों को कणकणाता हुआ, कुंतलियों के कुन्तलभार को स्खलित करता हुआ, बौर लगे हुए सहकार वृक्षों को कषायला बनाता हुआ तथा चिकिल्ल के फूलों को पाटल-पुष्पों से मिलाता हुअा बसंत प्राता है 152 बसंत के पाते ही नागरजन नन्दन वन में पहुंच जाते हैं। जम्बूकुमार भी अन्य अन्य कुमारों के साथ लीलापूर्वक कामिनियों के बीच कामदेव के समान क्रीड़ा करते हैं। जंबूसामिचरिउ के स्त्री-परिवेश से यह धारणा नितान्त पुष्ट होती है कि स्त्रियां समाज में अपना अपरिहार्य रखती हैं। उनके बिना लोकव्यवहार का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा, लोकव्यवहार का क्रियान्वयन हो या सृष्टि का संसरण, स्त्री-सहयोग के बिना असंभव ही है । स्त्री समाज की सर्वविध आवश्यकताओं को पूरा करने में अपना सराहनीय योग देती है । शारीरिक शृंगार के कारण यदि भोगवासना की दृष्टि ने स्त्री को समाज में अपरिहार्य महत्त्व दिया है तो स्त्री ने भी स्वयं अपनी योग-भावना के बल पर अभ्युत्थानिक पुरुषार्थ कर प्रपने गौरव को कम नहीं होने दिया है । समाज के उन्नयन में स्त्री का त्यागमिश्रित स्नेह कथमपि अनावश्यक नहीं माना जा सकता है । वस्तुतः स्त्री ही समाज को नाना विसंगतियों के दल-दल से ऊपर उठाये रखती है अन्यथा सामाजिकों को सुसंस्कारों से मंडित करने का दायित्व कौन संभाल सकता है ? 1. अखलिय सर सक्कयकइ कलिबि आएसिउ सुउ पियरें । पाययपबंधु बल्लहु जणहो बिरइज्ज उ किं इयरें ।। जंबूसामिचरिउ 1.4
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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