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________________ 91 जैनविद्या विभ्रमा - यह वाराणसी के राजा लोकपाल की प्रमुख रानी है । इसका रंग-रूप तो अप्सरा जैसा है किन्तु चाल-चलन (चरित्र) पट्टमहिषी के सर्वथा विपरीत व्यभिचरित है । शत्रु पर विजयाकांक्षी राजा जब देशान्तर जाता है और युद्ध में पांच वर्ष लग जाते हैं तब यह विभ्रमा अपने विशिष्ट भ्रमवाले नाम को सार्थक करती हुई, कामवासना से जलती हुई अपनी एक बूढ़ी दासी से अपनी वासना को तुष्ट करने के लिए कोई उपाय करने को कहती है । 48 विभ्रमा का कथन उसके निकृष्ट चरित्र को स्पष्ट करता है । इस प्रकार अभिधानोपेत स्त्रियों के परिचय से ज्ञात होता है कि कामलता और विभ्रमा इन दो स्त्रियों को छोड़कर शेष ने भारत की प्रार्ष मर्यादा के अनुरूप अपने कुलधर्म का पालन करते हुए रूप, बुद्धि और शील की सात्विकता से समूची स्त्री जाति को गौरव प्रदान किया है । कामलता तो स्पष्टतः वेश्या है, वेश्यावाट में रहती है अतः संभव है कि अपने वंशानुगत संस्कार व व्यापार के वशीभूत होकर ही उसे इस प्रकार के दुष्कर्म में प्रवृत्त होना पड़ा हो किन्तु विभ्रमा का दुश्चरित्र ऐसे किसी कारणवश नहीं है, उसकी भावनाएं ही विकृत हुई हैं। वस्तुतः विभ्रमा ने अस्थिर व पराधीन वासना सुख अर्थात् लोकनिंद्य संभोग की चाह करके सम्पूर्ण स्त्री जाति को कलंकित कर दिया है, स्त्री के सतीत्व का गौरव धूमिल कर दिया है भले ही वह अपनी चाह पूर्ण न कर पायी हो । लगता है कि जम्बूसामिचरिउ के कर्ता कवि वीर शृंगारप्रिय हैं और स्त्रियों के प्रति अपनी सहानुभूति अवश्य रखते हैं। स्त्रियों के अपरिहार्य सामाजिक महत्त्व को पुनर्स्थापित करना उन्हें अभीष्ट है । तभी तो वे अपने काव्य में उनके चरित्रों का सातत्य बनाये रखते हैं । ग्रंथारम्भ में मगधदेश का वर्णन भी वे स्त्री के बिना नहीं कर सके हैं। उन्होंने मगध के सौंदर्य को किचित् स्त्री-सौन्दर्य से उपमित किया है । पूर्वविदेह के पुष्पकलावती देश में स्थित पुंडरिकिणी नगरी की शोभा के वर्णन में भी वे ऐसा ही करते हैं । 49 afa अपने चरितनायक जम्बूकुमार के प्रतिशय सौंदर्य व वैशिष्ट्य को व्यक्त करने के लिए बड़ी चतुराई से वहां की स्त्रियों को पाठक के सामने ले आता है— 'कुमार के दर्शन से नगर की नारियां मकरध्वज के शर प्रहार से क्षुब्ध हो गईं और विरह से कांपने लगीं व शून्यभाव से बोलीं कि कहीं मेरा हृदयरूपी धन इस कुमार ने ले तो नहीं लिया है । उन्हें बड़ा विस्मय भी है कि दुःख का वेदन करानेवाला कोई दूसरा मन उनमें प्रविष्ट कर गया है क्या ? किसी कामिनी का विरहानल प्रदीप्त हुआ जो प्रश्रुजल पूर बनकर कपोलों पर लुढ़क श्राया, हाथ घुमाने से किसी का हाथी दांत का चूड़ा हाथ से छिटककर चूर-चूर हो गया, किसी का शरीर पर लगाया हुआ लाल चन्दन का लेप तुरन्त ही विरहताप के कारण छम-छम करके चटक गया, कोई रक्तचन्दन से सींची जाती हुई भी सूखने लगी, कोई उतावली के कारण गले में हार नहीं पहन सकी और एक नेत्र में काजल लगाना ही भूल गई, कोई चूड़ी को हाथ में पहनते हुए केशपाश फहराये तोरण-स्तम्भ से भिड़ गई तथा कोई बाला कुमार से कहने लगी- अरे ! मैं तेरे रूप की अनुकृति से अनंग को चित्रित तौ कर लूं 150 जरा ठहर,
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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