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________________ जैन विद्या (9) पादाकुलक (16 मात्रिक अंत ग ल) वरकमलालिगियचारुमुत्ति, रयणत्तयसाहियपरममुत्ति । तइलोयसामि-सममित्तसत्तु, वयणसुहासासिय सयलसत्तु ॥ 1.1 9-10 (10) पारणक या विसिलोथ (15 मात्रिक अंत नगण) रसभावहि रंजियविउसयणु, तो मुयवि सयंभू अण्णु कवणु । सो चेय गव्वु जइ नउ करइ, तहो कज्जे पवणु तिहयणु धरइ॥ 1.2.12-13 (11) सग्गिणी (सग्विणी) (20 मात्रिक अंत ल ग) कसरणमणिखंडचिचइयधरणीयलं, सप्पसंकाइ चलवलियकिरणज्जलं । पहि चंपेवि पाहणइ जा किर थिरं, धुणइ कुंचइय-चंचूमऊरो सिरं ॥ (सग्गिणी नाम छंदो) 1.9.8-9 (12) सारीय (20 मात्रिक अंत ग ल) जो महितलप्पंत विज्जाहरिदेण, उक्खित्तहत्येण गं वरिषेण । नवनिसिय पहरणफडाडोयनाएण, पंचमुहगुंजारसण्णिहनिनाएण ॥ 5.14.6-7 (13) सिंहावलोक (16 मात्रिक अंत मगण) - विधति जोह जलहरसरिसा, वावल्लभल्लकण्णिय वरिसा। फारक्क परोप्पर प्रोवडिया, कोंताउह कोतकरहिं भिडिया ॥ 6.6.7-8 समवृत्त वणिक (14) त्रिपदी शंखनारी या सोमराजी (6-4-6-46 वर्ण गण य य+य य+य य) - नमंसेवि वीरं, महामेरुधीरं, तिलोयग्गथक्कं । विलोणासुहाणं, जणंभोरहाणं, पवोहिक्कमक्कं ॥ 4.5.1-2 (15) धवला अथवा दिनमणि (19+19 वर्ण गण 6X न गण+न) - उहयबलमिलणपडिखुहियजलयरबलं । ' समय-तडफिडवि झलझलइ जलनिहिजलं । तुरय-करि-सुहड-रह-फुरियरुइपहरणं । गिलइ तिहुवणु व कलयलेण पुणरवि रणं ॥ 7.5.11-14 (16) भुजंगप्रयात (12+12 वर्ण गण य य य य+य य य य) - तम्रो पेल्लियं झत्ति जाणेण जाणं, गइंदेण अण्णं गइंदं सवाणं । तुरंगेरण मग्गम्मि तुंगं तुरंग, भुयंगं भुयंगेण वेसासु रंगं ॥ 4.21.13-14 (17) समानिका (8+8 वर्ण गण र ज ग ल+र ज ग ल) - मे करिणठ्ठ भाई एक्कु मंडलतरम्मि थक्कु । वच्छरेसु प्राउ प्रज्जु, जाणिऊण तुझ कज्जु ॥ 9.17.8-9)
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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