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________________ जनविद्या 61 इनके साथ बीच-बीच में अन्य छंदों का प्रयोग भी द्रष्टव्य है । अधिकांशतया वीर कवि ने समवृत्त छंदों का उपयोग किया है । वणिक छंदों में कुल पांच समवृत्त छंदों का व्यवहार हुआ है। विषमवृत्त मात्रिक छंदों में गाथा छंद के विविध प्रकार, दोहा, रत्नमालिका, वस्तु एवं मणिशेखर केवल ये पांच छंद उपलब्ध हैं । पांच स्थलों पर दंडक छंद भी दृष्टिगत है। कड़वकों के प्रादि-अन्त में ध्रुवक, घत्ता छंद भी परिलक्षित हैं । कवि काव्य में व्यवहृत छंदों के उदाहरणों की तालिका देना यहां असंगत न होगा यथा समवृत्त मात्रिक (1) अलिल्लह (16 मात्रिक अंत ल ल)___ जलगयकुंभथोरथरणहारउ, फेरणावलिसोहियसि यहारउ। उहय कूल दुमनियसियवसणउ, जलखलहलख सज्जियरणसउ ।। 1.6.22-23 (2) उर्वशी (20 मात्रिक अंत रगण) जम्मदिवसम्मि पुत्तस्स बहुपरियणो, चक्कवट्टी-कयाणंदवद्धावणो। नियवि पुत्ताणणं गहिरसरवाइणा, सिवकुमाराहिहाणं कयं राइणा ॥ 3.4.3-4 (3) करिमकरभुजा (8 मात्रिक अंत ल ल) विहिडप्फडु करि खंधोवरि । कड्ढिउ विसहइ थाहर न लहइ ॥ 7.10.20-21 (4) खंडयं (13 मात्रिक अंत रगण) पहु तउ बंसण कारणं वियप्पइ में मणं । संहुं तुम्हेहि समुच्चयं चिरभवि कहि मि परिच्चयं ॥ 8.2.1-2 (5) त्रोटनक (16 मात्रिक अंत ल ग) पंचमिह वसंत पक्खधवले, रोहिणिठिए मयलंछण विमले । • पच्चूस पसूय सलक्खणउ, कुलमंगलु जयवल्लुह तणउ ॥ 4.7.10-11 (6) दीपक (10 मात्रिक अंत ग ल) संतेण ता मुक्कु वसि होवि पुणु थक्कु । जो नठ्ठ सनरिंदु पडिमिलिउ जविंदु ॥ 4.22.23-24 (7) मदनावतार (20 मात्रिक अंत यगण) एरिसम्मि दुद्धरम्मि भोसणे रणे, गरुयनाय-दिग्णघाय तुट्टपहरणे । __सुहडसंड-बाहुवंडमुंडमंडिरे, लुरिणयटंक-जाणियसंक-बाहुहिंडरे ॥ 6.10 1-2. (8) पद्धडिया (पज्झटिका) (16 मात्रिक अंत जगण) सरलंगुलिउन्भिवि जंपिएहि, पयडेइ व रिद्धि कुडुबिएहि । देउलहिं विहूसिय सहहिं गाम, सग्ग व अवइण्ण विचित्तधाम ॥ 1.8.7-8
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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