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________________ जैनविद्या 45 भवदेव संकोचवश मौन रहा । संघ 12 वर्ष यहाँ वहां गया। भवदेव ऊपर से तो मुनिमार्ग पालता था लेकिन अंदर से यानी हृदय में गृहस्थी और कामवासना के स्वप्न ही संजोता था। वह तन से साधु, किन्तु मन से कामवासना-स्वादु था। ___12 वर्ष बाद वह मुनिसंघ अग्रहार ग्राम (भवदेव के ग्राम) के निकट पाया तो भवदेव किसी बहाने संघ से चुपचाप निकलकर अपने घर की ओर बढ़ा। ग्राम में परिवर्तन भी हुआ । ग्राम के बाहर एक चैत्यालय था, वहीं वह दर्शन करने गया। वहीं उसकी स्त्री नागवसु से भेंट हो गई । नागवसु पति को साधु-मार्ग में जानकर स्वयं साधुमार्ग में, जप-तप में लीन हो गयी थी अतः शरीर से कृश थी। जब नागवसु को मालूम हुआ कि उसका पति भवदेव धर्ममार्ग छोड़कर पुनः वासना-मार्ग में प्राना चाहता है तो उसने अपना तपकृश शरीर उसे बताया जो अब कामवासना को छोड़ चुका था । उसने उल्टी किये अन्न को पुनः चाटने की बात कहकर भवदेव को पुनः धर्म-मार्ग में दृढ़ किया । भवदेव पुनः गुरु के पास गये और सच्चे मन से दृढ़तापूर्वक मुनि-मार्ग में प्रारूढ हुए । दोनों भाई आयु पूर्ण कर तीसरे स्वर्ग में देव हुए। फिर देवायु पूर्ण होने पर भवदत्त का जीव विदेह में पुडरी किरणी नामक नगरी के राजा · वज्रदंत और रानी यशोधना के यहाँ सागरचंद्र नामक राजपुत्र हुआ और उसी देश में वीताशोक नामक नगरी में भवदेव का जीव वहां के राजा महापदम और रानी वनमाला का राजपूत्र शिवकुमार हुआ। एक मुनिसंघ पाया और पूर्व भव जानकर सागरचन्द्र मुनि-मार्ग में प्रविष्ट हुअा। साथ ही वह भवदेव के जीव शिवकुमार को भी उसी ओर ले जाना चाहता था पर शिवकुमार के पिता व माता ने आज्ञा न दी व उसका राज-कन्याओं के साथ परिणय भी करा दिया । शिवकुमार ने महलों में ही रहकर तापसी जीवन बिताया। वह आमोद-प्रमोद छोड़कर धर्म-ध्यान में अधिक समय लगाता था और भोजन में केवल कांजी का शुद्ध पाहार लेता था। अन्त में संन्यासपूर्वक मरण हुआ, और वह विद्युन्माली नाम का तेजस्वी देव हुआ । भवदत्त का जीव भी कालान्तर में देव हुआ । विद्युन्माली देव (भवदेव का जीव) आयु पूरी कर राजगृही नगरी के निवासी सेठ अरहदास और सेठानी जिनमती के पुत्र रूप में हुआ। बालक के गर्भ में आने के पहले सेठानी जिनमती ने सोते समय रात्रि के अंतिम पहर में निम्न पांच मांगलिक स्वप्न देखे-- 1. अति सुगंधित जंबू-फलों का समूह, 2. तेज धूमरहित अग्नि, 3. फल व फलों से लदा सुगंधित शालि क्षेत्र, 4. खग-कलरव युक्त निर्मल सरोवर, 5. विशाल सागर । समय पर सेठ अरहदास व सेठानी जिनमती ने पुत्र जन्म पर अनेक धार्मिक उत्सव व दानपुण्य भी किए । बालक का नाम जंबूकुमार रखा । दोज के चांद की तरह जम्बूकुमार बढ़ने लगे। साथ ही अनेक विद्यानों में भी पारंगत हो गये । जंबूकुमार ने जब यौवन की दहलीज पर पैर रखा था तब उनके मनमोहक रूप व असाधारण गुणों की चर्चा सारे नगर में फैल चुकी थी । अतः उनके विवाह के प्रस्ताव अच्छे-अच्छे घरों से पाये। सेठ अरहदास के कुछ घनिष्ठ मित्रों की कन्यानों के भी प्रस्ताव पाये । खेल-खेल में सेठ अरहदास अपने चार मित्रों से जंबूकुमार के विवाह के लिए बचपन से ही वचनबद्ध हो गये थे, अतः उन चार मित्रों की कन्यानों से जंबूकुमार के परिणय की बात उठी। माता-पिता ने अपना बचन निर्वाह करने
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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