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________________ जनविद्या हेतु जंबूकुमार का परिणय इन चार कन्याओं के साथ तय किया और इन पांचों घरों में वैवाहिक उत्सव होने लगे। इतने में बसंत पा पहुंचा । राज्य परम्परा के अनुसार राजा व प्रजा उपवन में व जलक्रीड़ा में उन्मुक्त भाव से कामिनियों से हास-परिहास किया करते थे। जंबूकुमार ने भी किया व अनेकों को मोहित किया । सब बंसतोत्सव मनाने में मग्न थे तभी एक समाचार मिला कि राजा का 'विषम-संग्रामशूर' नामक पट्ट-हाथी बन्धन तुड़ाकर इसी ओर पा रहा है । वह जहां जाता है वहीं विनाश का भयावह दृश्य उपस्थित करता है। जब कोई उस मस्त हाथी को रोक नहीं सका तो जंबूकुमार आगे बढ़े और चतुराई से उसकी पीठ पर बैठकर अंकुश से उसे वश में किया। राजा बहुत प्रसन्न हुए और जंबूकुमार का सम्मान किया व राजसभा का सभासद् भी उन्हें बनाया। एक दिन राज-सभा में गगनगति नाम का एक विद्याधर पाया और राजा को प्रणाम कर बोला–महाराज ! मेरी भाजी विलासवती अपूर्व सुदरी है। हम लोग उसका विवाह प्राप से करना चाहते हैं, किन्तु हंसद्वीप के रत्नचूल नामक विद्याधर ने वलपूर्वक कन्या को ले जाने हेतु मेरे बहनोई की राजधानी केरल को अपनी सेना से घेर लिया है। अब आप हमारा उद्धार कीजिए । ऐसा सुनकर जंबूकुमार राजा की अनुज्ञा लेकर विद्याधर गगनगति के विमान में बैठकर अकेले केरल की ओर रवाना हुअा। राजा ने अपनी सेना को भी केरल की ओर रवाना होने का आदेश दिया । जंबूकुमार राजदूत का वेश धर विद्याधर रत्नचूल से मिला व उसे भला-बुरा कहा, पर रत्नचूल तो अपनी जिद पर अड़ा था। अंत में कुछ झगड़ा होने पर सबने यह फैसला किया कि राजा रत्नचल और जंबकमार दोनों द्वन्द्व-यद्ध करें, निरीह सेना का विध्वंस न होने दें । जो जीते, वही विजयी माना जाय । द्वन्द्व-युद्ध हुआ और जंबूकुमार ने रत्नचूल को परास्त कर बांध लिया। अंत में उसे केरल ले जाकर क्षमा-दान दिया व राजकुमारी विलासवती का विवाह पूर्व निर्धारित राजगृही के राजा से करा दिया । राजगृही के उपवन में सुधर्म स्वामी 500 मुनियों के साथ विराजमान थे । राजा व प्रजा सबने सभक्ति वंदना की, जंबूकुमार ने भी साष्टांग वंदना की। पूज्य सुधर्म स्वामी से विदित हुआ कि जंबूकुमार भवदेव का जीव है, और सुधर्म स्वामी स्वयं उसके भाई भवदत्त के जीव हैं । भवदेव विद्युन्माली देव होने के पश्चात् जंबूकुमार हुए, और भवदत्त स्वर्ग से च्युत होने के बाद इसी मगध देश में संवाहक नामक नगर में सुप्रतिष्ठित राजा व रुक्मणी रानी के सुधर्म नाम के राजपुत्र हुए। एक दिन सुप्रतिष्ठित राजा सपरिवार महावीर स्वामी के समवशरण में गये व उपदेश सुन दीक्षित हो गये । सुधर्म ने भी पिता का अनुकरण किया । पिता भगवान् के चतुर्थ गणधर हुए और मैं उनका पांचवा गणधर बना। तुम्हारी पूर्व की चार देवियों ने स्वर्गच्युत होकर सुन्दर कन्यारूप पाया है और उन चारों कन्याओं से तुम्हारा परिणय होगा। ___यह सुनकर जंबूस्वामी का हृदय वैराग्य से भर गया। उन्होंने गुरु-चरणों पर गिरकर दीक्षा लेनी चाही, किन्तु माता-पिता की अनुमति के बिना वे दीक्षा लेने में असमर्थ रहे । जंबूकुमार ने माता-पिता से ग्राज्ञा मांगी और परिणय के लिए वचनबद्ध चार कन्याओं
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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