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________________ जैन विद्या अनायास आकृष्ट हो जाती है वह है प्राकृत 'जंबूचरियं'। कवि गुणपाल की यह एक उत्कृष्ट रचना है। डॉ. नेमीचंद शास्त्री ने "जंबूचरियं' के रचयिता गुणपाल को अपने ग्रंथ 'प्राकृत भाषा और साहित्य का पालोचनात्मक अध्ययन' में विक्रम की 9वीं शती के लगभग का माना है । विद्वान् इन ग्रंथों का प्रभाव जंबूसामिचरिउ में स्पष्ट देखते हैं। प्रश्न-- पण्डितजी ! साथ ही बताइये कि परवर्ती किन कवियों ने वीर कवि का प्राभार माना है? उत्तर- परवर्ती निम्नलिखित कवि हैं जिन्होंने वीर कवि का सादर आभार माना है और उनकी रचनाओं में उनका स्पष्ट प्रभाव दीखता है - सं. 1100 में होनेवाले मुनि नयनंदि जिसने “सुदंसणचरिउ" लिखा है उस पर "जंबूचरिउ" का अत्यन्त गम्भीर और प्रचुर प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । 1520 में श्री ब्रह्म जिनदास ने संस्कृत में 'जंबूसा मिचरिउ' लिखा है । सच पूछा जाए तो वह अधिकांशतः वीर कवि की रचना का संस्कृत रूपान्तर मात्र ही है। 15वीं शती में प्रसिद्ध कवि रइधू हो गये हैं । उनने अपनी रचनाओं में वीर कवि का नाम साभार उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त और कुछ सामान्य रचनाकार भी हैं। सं. 1632 में रचित पं० राजमलजी द्वारा "जंबूसामिचरिउ" भी वीर कवि की रचना का संस्कृत रूपान्तर ही है। प्रश्न- वीर कवि की रचना "जंबूसामिचरिउ" की कथा भी कह दीजिये । उत्तर- ठीक है, संक्षेप में कहता हूँ, सुनो - मगध देश में वर्धमान नामक ब्राह्मणों का अग्रहार ग्राम है। वहां सोमशर्म नामक वेदज्ञ ब्राह्मण रहता था, उसकी पतिपरायणा पत्नी थी सोमशर्मा। उनके दो पुत्र हुए । बड़े पुत्र का नाम था भवदत्त और छोटे पुत्र का नाम था भवदेव । दोनों शास्त्रज्ञ और सदाचारी थे। कुछ काल पश्चात् सोमशर्म कठिन व्याधि से ग्रस्त हो गया और अपना मरणकाल जान श्रीविष्णु का नाम जपते-जपते वह जीवित ही चिता में प्रविष्ट हो मृत्यु-धर्म को प्राप्त हुआ। उसकी पतिपरायणा स्त्री सोमशर्मा भी पति की चिता में जलकर पति अनुगामिनी हो गई। उस समय भवदत्त था 18 वर्ष का और उसका छोटा भाई भवदेव था 12 वर्ष का। कुछ काल बाद सुधर्म मुनि के उपदेश से बड़ा पुत्र भवदत्त साधु हो गया, गृहस्थी संभालनी पड़ी छोटे पुत्र भवदेव को । सुधर्म मुनि का संघ उसी ग्राम में आया। मुनि भवदत्त अपने पूर्व घर की ओर गया। वहां उसे मालूम हुआ कि उसके छोटे भाई भवदेव का विवाह हो रहा है । भवदेव अपने भाई भवदत्त का समाचार मिलते ही नवलवधू को अर्घमंडित ही छोड़कर भाई को प्रणाम करने आया । भवदत्त संघ की ओर चला तो अनेक जन व भवदेव भी उनके साथ चले । शेष सब धीरे-धीरे वापिस चले गये, किन्तु भवदत्त ने भवदेव को जाने के लिए नहीं कहा, और जब वह संघ में पहुंचा तो उसे प्राचार्य ने मुनिदीक्षा दे दी । वहाँ भी
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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