SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 34 जैन विद्या पूर्व जन्मों का वृत्तान्त सुनकर विरक्त हो घर तजना चाहते हैं। उनकी माता उन्हें समझाती है, उनकी पत्नियां वैराग्य-विरोधी कथाएं सुनाती हैं लेकिन वह उन सबसे प्रभावित नहीं होते, वे काम के असाधारण विजेता जो थे । आखिर में वे सुधर्मास्वामी से दीक्षा लेते हैं और उनकी सभी पत्नियां आर्यिकाएं हो जाती हैं। उनके लोकोत्तर जीवन की पावन झाँकी ही चरित्रनिष्ठा का एक महान् प्रादर्श रूप जगत् को प्रदान करती है। इनके पवित्रतम उपदेश को पाकर ही विद्युच्चर जैसा महान् चोर भी चौर-कर्मादि दुष्कर्मों का परित्याग कर अपने पाँच सौ योद्धाओं के साथ महान् तपस्वियों में अग्रणी तपस्वी हो जाता है और व्यंतरादिकृत महान् उपसर्गों को ससंघ साम्यभाव से सहकर सहिष्णुता का एक महान् आदर्श उपस्थित करता है । जंबूस्वामी अन्त में केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण पद प्राप्त करते हैं। जंबूस्वामी के वर्तमान यश, प्रताप और वैभव के मूल में उनके पूर्वभवों का घटनाक्रम सम्बद्ध है । यह इस बात का प्रतीक है कि "मनुष्य" जो कुछ होता है वह अपनी अतीत की घटनामों का फल होता है । धार्मिक अनुष्ठान से वह अपने भविष्य को संवार सकता है और वर्तमान को संयमित रखने में समर्थ होता है । इस प्रकार समूची कथा प्रतीक रूप में गृहीत है। राग और विराग का द्वन्द्व दिखाने के लिए सारी घटनाएं और जन्मपरम्पराएँ संयोजित की गई हैं । व्यक्ति राग से ऊपर उठना चाहता है पर सांसारिक परिस्थितियां उसे ऊपर नहीं उठने देतीं । जंबूस्वामी का चरित्र इसी बात का निदर्शन है । सतत साधना के उपरान्त ही व्यक्ति अभीष्ट प्राप्त कर सकता है। श्रोता-वक्ता शैली में कथा की प्रार्ष परम्परा वही सिद्धप्रसिद्ध राजा श्रेणिक और गौतम गणधर से प्रारम्भ होती है। इस प्रकार "जंबूसामिचरिउ" का कथानक सुगठित है। इसमें समाविष्ट अन्तर्कथाएँ मुख्य कथावस्तु के विकास में सहायक बन पड़ी हैं । ऐतिहासिक और पौराणिक घटनाओं का भी कवि ने यथास्थान कल्पना के साथ सुन्दर सम्मिश्रण किया है । इस तरह ग्रंथ का कथाभाग बहुत ही सुन्दर, सरस और मनोरंजक है और कवि ने काव्योचित सभी गुणों का ध्यान रखते हुए उसे पठनीय बनाने का सफल प्रयत्न किया है। काव्यरूढ़ियां कथा के प्रवाह में काव्यरूढ़ियों का निर्बाध निर्वाह हुआ है। डॉ. विमलप्रकाश जैन चार काव्यरूढ़ियों का उल्लेख करते हैं?-1. लोक प्रचलित विश्वासों से सम्बद्ध रूढ़ियां, 2. नागदेवों से सम्बद्ध रूढ़ियां, 3. तंत्र-मंत्र औषधि से सम्बद्ध रूढ़ियां, 4. आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक रूढ़ियां । इस काव्य में आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक रूढ़ियों का सर्वाधिक प्रयोग परिलक्षित है । हमारी दृष्टि से महाकवि वीर के काव्य में कुल सात काव्यरूढ़ियां प्रयुक्त हुई हैं--1. मंगलाचरण, 2. विनयप्रदर्शन, 3. काव्यरचना का प्रयोजन, 4. सज्जनदुर्जन वर्णन, 5. वंदना (प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में स्तुति या वंदना), 6. श्रोता-वक्ता शैली, 7. अन्त में प्रात्मपरिचय । ये काव्यरूढ़ियां संदेशरासक, पद्मावत और रामचरितमानस प्रादि में भी कुछ परिवर्तन के साथ दृष्टिगत हैं।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy