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________________ जैनविद्या 35 . चरित्रचित्रण जंबुस्वामी इस महाकाव्य का नायक है। उसका चरित्र केन्द्रीय है। शेष प्रा उसी के परिप्रेक्ष्य में नियोजित हैं । जंबूस्वामी के अतिरिक्त भवदेव, भवदत्त, नागवसु, सागरदत्त, शिवकुमार, सुधर्मा, उपनायक विद्युच्चर, प्रतिनायक रत्नशेखर, जंबूम्वामी की चार वधुएँ तथा जंबू और शिवकुमार के माता-पिता के चरित्र प्रमुख हैं । इन प्रमुख पात्रों के साथ-साथ कतिपय पात्र इस प्रकार के हैं जिनके संदर्भ में विशेष कथ्य काव्यग्रंथ में नहीं हैं, यथा-राजा मृगांक व उसकी विलासवती कन्या तथा अणाढिय नामक यक्ष । जंबूस्वामी के चरित्र को कविश्री ने जिस दिशा की ओर मोड़ना चाहा है उसी ओर वह मुड़ता गया है, जिस लक्ष्य पर उसे पहुंचाना चाहता है उसी पर वह अन्त में पहुंच जाता है । किन्तु कवि ने नायक के जीवन में किसी भी प्रकार की अस्वाभाविकता चित्रित नहीं की है । राग और वैराग्य के मध्य जंबूस्वामी का जीवन विकसित होता चला गया है । जंबूस्वामी के चरित्र के अतिरिक्त किसी अन्य पात्र के चरित्र का विकास कवि को इष्ट नहीं है । ___ इस प्रकार वीर कवि ने अपने पात्रों का चरित्र-चित्रण रचना के उत्कृष्ट भाग में किया है और धर्म सम्बन्धी चर्चाओं व तप-साधना आदि को जो कि सामान्य पाठकों की रुचि के विषय नहीं है, अल्प स्थान दिया है जिससे आद्योपान्त कहीं भी शुष्कता, नीरसता नहीं दिखाई देती। वस्तुवर्णन अपभ्रंश काव्यों के सदृश, प्रबंधकाव्योचित ग्राम, नगर, देश, अरण्य, सन्ध्या, प्रभात, मध्याह्न, रात्रि, चन्द्र, सूर्य, वन, पर्वत, नदी, सरोवर, उपवन, उद्यान एवं ऋतु आदि का स्वाभाविक, सजीव एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत महाकाव्य में हुआ है । कवि वीर ने वर्णनों में प्राचीन संस्कृत कवियों की परम्परा का अनुकरण किया है । विन्ध्याटवी का वर्णन द्रष्टव्य है। यथा भारहरणभूमि व सरहभीस, हरि-प्रज्जुण-नउल-सिहंडिदीस । गुरु-पासत्याम-कलिंगचार, गयगज्जिर-ससर-महीससार । लंकानयरी व सरावरणीय, चंदहिं चार कलहावणीय । सपलास-संकचण-अक्ख थड्ढ, सविहीसण-कइकुलफलरसड्ढ । कंचाइणी व्व ठिय कसणकाय, सदूलविहारिणी मुक्कनाय ।। 5.8.31-35 कवि वीर ने वेश्यामों की विविध चेष्टाओं का, काम-व्यापारों का एवं वेश्याजीवन का अत्यन्त यथार्थ चित्रण किया है, यथा-' वेसउ जत्थ विहूसियरूवउ, नरु मण्णंति विरूउ विरूवउ। खणदिट्ठो वि पुरिसु पिउ सिट्ठउ, परणयारूढ न जम्मे वि विठ्ठउ । नउलुब्भउ ताउ किर गणियउ, तो वि भयंगदंतनहवणियउ । वम्महदीवियाउ अवितत्तउ, तो वि सिणेह संगपरिचत्तउ । 9.12.5-8
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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