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________________ अशरणानुप्रेक्षा मरणसमए जमदूहि निज्जइ, असरणु जीउ केरण रक्खिज्जइ । जइ विधरंति धरियधुर माणव, गरुड-फरिणद-देव-दिढदाणव । अक्क-मियंक- सक्क- सवकंदण, हरि-हर-बंभ वइरि-अक्कंदण । पण्णारहं खेत्तेसु सुहंकर, कुलयर- चक्कवट्टि- तित्थंकर । जइ पइसरइ गाढपविपंजरे, गिरिकंदरे सायरे नइ-निज्झरे । हरिणु जेम सोहेण दलिज्जइ, तेम जीउ कालें कवलिज्जइ। पाउसु कम्मु निबद्धउ जेत्तउ, जीविज्जइ भुजंतह तेत्तउ । तहो कम्महो थिरु खणु वि न थक्कइ, तिहुवणे रक्ख करेवि को सक्कइ । अर्थ--मरण के समय जब यमदूत जीव को ले जाते हैं उस समय उस अशरण जीव की रक्षा कौन कर सकता है! चाहे बड़े-बड़े संग्राम धुरंधर सुभट पुरुष भी काल से जीव की रक्षा के लिए उसे संरक्षण दें; चाहे गरुड़, फणीन्द्र, देव या बलिष्ठ दानव; चाहे सूर्य, चन्द्र, शुक्र या शक्र; चाहे शत्रु को प्राक्रन्दन करानेवाले हरि और हर; चाहे पन्द्रह क्षेत्रों में कल्याणकारी कुलकर, चक्रवर्ती या तीर्थकर उसे अपने संरक्षण में ले लें; चाहे वह सुदृढ़ वज्र-पंजर में प्रवेश कर जाय या गिरि-कंदराओं, सागर, नदी-निर्भर में तो भी जिस प्रकार हरिण सिंह के द्वारा मार डाला जाता है उसी प्रकार जीव काल द्वारा निगल लिया जाता है। वह उसकी आयु से अधिक एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता । तीनों लोकों में कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता। -जं. सा. च. 11.2
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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