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________________ महाकवि वीर का समीक्षा सिद्धान्त -डॉ. छोटेलाल शर्मा महाकवि "वीर" का समय सन् 953 ई० और सन् 1028 ई० के बीच में आता है। उसने "जंबूसामिचरिउ' की रचना सन् 1019 ई० में पूरी की थी। वह महाकवि देवदत्त का पुत्र भी था और शिष्य भी । उसकी माता का नाम "संतुवा" था। उसे सरस्वती सिद्ध थी। वह संस्कृत का "अस्खलित स्वर" अथवा "अव्याध" कवि था - अखलियसर सक्कयकइ कलिवि पाएसिउ सुउ पियरें। पाययपबंधु वल्लहु जणहो विरइज्जउ कि इयरें ॥ 1.4.9.10 इस तरह स्वनामधन्य पिता और गुरु की आज्ञा से ही वह "प्राकृत बन्ध" में प्रवृत्त हुआ था। "देवदत्त" "विमलजसु" और "निब्बूढकस” थे । उन्होंने “वरांगचरिउ" का "बहुभावहि" "पद्धडियाबंधे" उद्धार किया था। वे यशोधन थे और विद्वानों में प्रख्यात कीर्ति, सही अर्थों में "कविगुण रसरंजिय विउसह" । उन्होंने अपने जीवनकाल में "सुद्धय वीरकह" का विस्तार किया था और शांतिनाथ का यशोगान - इह प्रत्थि परमिजिणपयसरणु, गुलखेड विरिणग्गउ सहचरण । सिरिलाडवग्गु तहिं विमलजसु, 'कइ देवयत्तु' 'निम्बूढकसु' । बहुभावहिं जें "वरंगचरिउ", पद्धडियाबंधे उद्धरिउ । कविगुणरसरंजियविउसह, वितथारिय "सुद्धवीरकह" । चच्चरियबंधि विरइउ सरसु, गाइज्जइ संतिउ तारजसु । नच्चिज्जइ जिरणपय सेवहि, किउ रासउ अंबादेवहिं । 1.4.1.6
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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