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________________ जनविद्या स्थानों पर कवि द्वारा रचित संस्कृत के श्लोकों एवं प्राकृत गाथाओं की उपलब्धि से यह बात प्रमाणित है । अपभ्रंश भाषा की तो यह रचना मुख्यरूप से है ही। जम्बूस्वामी का चरित्र साहित्यकारों एवं धर्मप्रेमियों में अत्यन्त लोकप्रिय रहा है यह इसी से प्रकट है कि उनके चरित्र को लेकर विभिन्न भाषाओं में निबद्ध 95 रचनाओं का पता तो अब तक लग चुका है जिनका उल्लेख डॉ. विमलप्रकाश जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध में किया है । इसका कारण है जम्बूस्वामी की चरित्रगत विशेषता। जैनधर्म वैराग्यप्रधान धर्म है । सांसारिक विषयभोगों, धनसम्पत्ति, सुख प्रादि के राग को वह हेय समझता है । यह तत्त्व उनके जीवन कथानक में प्रचुरता से प्राप्त है । जम्बूस्वामी का स्वयं का कथानक तो इतना घटनाप्रधान एवं विस्तृत नहीं है कि उस पर एक काव्य लिखा जा सके अतः कवि ने उनके कुछ पूर्वभवों का वर्णन करके एवं राग और वैराग्य के पक्ष-विपक्ष में उनकी पत्नियों, विद्युच्चर चोर एवं स्वयं उनसे कथाएं कहलवा कर कथानक को विस्तार दिया है जो उसके उद्देश्यसिद्धि में बाधक न होकर साधक ही हुई हैं । काव्य-रचना का उद्देश्य रागजन्य क्षणिक लौकिक सुखों, विषयभोगों आदि की निःसारता प्रदर्शित कर मानव को वैराग्य की ओर उन्मुख करना है जिसमें कवि पूर्णरूप से सफल हुआ है। इस प्रकार की 16अन्तर्कथाओं का समावेश कवि ने अपनी इस रचना में किया है । यद्यपि कवि ने अपनी इस रचना को कृति की अन्तिम प्रशस्ति में 'श्रृंगार-वीरे' शब्दों का प्रयोग कर श्रृंगार एवं वीर रस प्रधान कहा है किन्तु वास्तव में ग्रंथ में शृंगार और उसके विरोधी निर्वेद रसों का ही परिपाक हुआ है, वीर रस का समावेश तो उसमें प्रसंगवश ही हुआ है। डॉ. विमलप्रकाश जैन के अनुसार कवि ने 16 प्रकार के अलंकारों, 27 प्रकार के छंदों एवं .11 प्रकार के पत्ता छंद का प्रयोग किया है । कहने का अभिप्रायः यह है कि कवि रस, छंद, अलंकार आदि विषयों का पारंगत विद्वान् था जिसका विस्तृत परिचय पाठकों को इस अंक में प्रकाशित विद्वानों की अन्य रचनाओं से प्राप्त होगा। प्राधुनिक भाषाओं के विकास में अपभ्रंश भाषा का क्या महत्त्व प्रौर योगदान रहा है इस पर अब तक देश-विदेश के विभिन्न विद्वानों द्वारा पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है अतः अब इस सम्बन्ध में और अधिक लिखना पिष्टपेषण मात्र ही होगा। गत अंकों की भांति ही इस अंक में भी अपभ्रंश भाषा की एक अन्य अप्रकाशित लघु रचना सानुवाद प्रकाशित की जा रही है जो रावण और मन्दोदरी के संवादरूप में है जिसमें सांसारिक विषयभोगों की क्षणभंगुरता, धर्म की महत्ता आदि विषयों का बड़ी रोचक शैली में
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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