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________________ आरम्भिक पत्रिका का पंचम अंक 'कवि वीर विशेषांक' के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है । अब तक प्रपभ्रंश भाषा के तीन महाकवियों - स्वयंभू, पुष्पदन्त (2 अंक) एवं धनपाल पर चार विशेषांक प्रकाशित कर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विभिन्न दृष्टिकोणों से विस्तृत अध्ययन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा चुका है । हमारी इस प्रयास - श्रृंखला में 'कवि वीर' का स्थान चौथा है । संयोग से कवि वीर ने भी प्रपभ्रंश भाषा के कवियों की श्रृंखला में अपने को चतुर्थ स्थान पर ही रखा है किन्तु उसने तृतीय स्थान पर धनपाल के स्थान में अपने पिता देवदत्त के नाम का उल्लेख किया है जो वरांगचरित्र के कर्ता थे । इससे ज्ञात होता है कि उनमें काव्यप्रतिभा पैतृक एवं जन्मजात थी क्योंकि पिता के गुणों अथवा अवगुणों का प्रभाव उसकी सन्तान पर पड़ता ही है । कवि ने अपनी रचना 'जम्बूसामिचरिउ' की समाप्ति वि. सं. 1076 में की थी श्रतः उसका काल विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी निश्चित है । इसकी अन्य कोई रचना अब तक उपलब्ध नहीं हुई है। इस रचना के अन्तःपरीक्षण से स्पष्ट है कि कवि का उस समय प्रचलित संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश इन तीनों भाषाओं पर समानरूप से अधिकार था और वे इन तीनों भाषाओं में काव्यरचना करने में समर्थ थे । जम्बूसामिचरिउ में विभिन्न
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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