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जैन विद्या
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दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं के साहित्य और आगम ग्रन्थों में जम्बूस्वामी का चरित्र विस्तार से वर्णित है । दिगम्बर जैनों के धवला, जयधवला, तिलोयपणती, जम्बूदीपति संगहो ( पद्मनन्दि ) आदि तथा श्वेताम्बरों की विभिन्न स्थविरावलियों और पट्टावलियों में भगवान् महावीर के बाद की प्राचार्य परम्परा दी गई है । गुणभद्राचार्य कृत 'उत्तरपुराण', पुष्पदन्त कृत 'महापुराण', श्रीप्रभ कृत प्राकृतग्रन्थ 'धम्मविहियपरण', संघदासगण कृत 'वसुदेवहिडी', धर्मदासगणि की 'उवएसमाला', जयसिंहसूरि कृत 'धर्मोपदेश - माला - विवरण', भद्रेश्वरसूरि की 'कहावली', रत्नप्रभसूरि कृत 'उपदेशमाला पर विशेषवृत्ति', हेमचंद्राचार्य कृत 'परिशिष्ट पर्व' तथा उदयप्रभसूरि के 'धर्माभ्युदय' काव्य में जम्बूस्वामी की कथा आई है । कथाकोषों में उनकी कथा वर्णित है। उनके चरित्र को लेकर जो स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे गये उनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है
जम्बूचरियं
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जम्बूस्वामी चरित विषयक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा का जंबूचरियं महत्त्वपूर्ण काव्य है । इसके रचयिता नाइलगच्छीय वीरभद्रसूरि के शिष्य या प्रशिष्य गुणपालमुनि हैं । डॉ. जगदीशचंद्र जैन ने गुणपाल का समय विक्रम की 11वीं शती या उससे कुछ पूर्व माना है । 4 जबकि डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने इन्हें 9वीं शती के आस-पास स्वीकार किया है।" गुणपाल की एक अन्य कृति 'रिसिदत्ताचरियं' है जिसकी ताड़पत्रीय प्रति पूना में सुरक्षित है।
महाराष्ट्री प्राकृत में रचित इस काव्य में 16 उद्देश्य हैं । प्रारम्भ के तीन उद्देश्यों में काव्य की उपस्थापना है, चौथे में राजा श्रेणिक जब महावीर से प्रश्न करते हैं तब महावीर जम्बूस्वामी के पूर्व भव सुनाते हैं। जम्बूस्वामी के विवाह और दीक्षा का सुन्दर वर्णन हुआ है । इसका प्रकृति-चित्रण अनूठा है | कहानियाँ बड़ी उपदेशप्रद हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है
जं कल्ले कायव्वं श्रज्जं चिय तं करेह तुरमाणा । बहुविग्धोय मुहतो मा प्रवरहं पडिक्खेह 117
जम्बूचरियं
जंबूचरियं नाम से ही दूसरी रचना उपाध्याय पद्मसुन्दर की प्राप्त होती है । पद्मसुन्दर पद्ममेरु के शिष्य थे जो नागौर तपागच्छ के विद्वान् और बादशाह अकबर के 33 हिन्दू सभासदों में प्रधान थे । 'अकबरशाहि शृंगार दर्पण' की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि पद्मसुन्दर के दादागुरु श्रानन्दमेरु का अकबर के पिता हुमायूं और पितामह बाबर के दरबार में बड़ा सम्मान था 18
पद्मसुन्दर समन्वयवादी प्राचार्य थे। उनका समय ईसा की सोलहवीं शती का उत्तरार्ध निश्चित है । उनके अन्य ग्रन्थ हैं- रायमल्लाभ्युदय, भविष्यदत्तचरित्र, पार्श्वनाथ काव्य, प्रमाण सुन्दर, शब्दार्णव, शृंगारदर्पण, हायनसुन्दर ।
उक्त काव्य में 21 उद्देश्य हैं इसे 'प्रालापकस्वरूप - जंबूदृष्टान्त' या 'जंबू अध्ययन' भी कहते हैं । इसकी भाषा प्राकृत है और प्रारम्भ 'तेणं कालेणं' से हुआ है. 110