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________________ 120 जनविद्या जंबूसामिचरियं। प्राकृत में जंबूसामिचरियं की रचना जिनविजय महाराज ने की है जो अर्धमागधी प्राकृत में है। इस ग्रन्थ की प्रति संवत् 1814 फाल्गुन सुदि 9 शनिवार के दिन भावनगर में लिखी गई थी। डॉ. चौधरी ने इसका वास्तविक रचनाकाल वि. सं. 1775-1809 के बीच माना है और डॉ. चौधरी ने ही इसकी रचना का समय 5वीं शती होने का अनुमान लगाया है यतः इसकी रचना आगमों की गद्य-शैली में हुई है ।13 जिनविजय ने विजयदया सूरीश्वर के आदेश से इसकी रचना की थी। प्राकृत गद्य में रचित इस कृति में यत्र-तत्र सुभाषितों के रूप में प्राकृत पद्य भी उद्धृत किये गये हैं । रचना सुन्दर और अनुकरणीय है । जंबूसामिचरिउ4 महाकवि वीर का जंबूसामिचरिउ काव्य उपलब्ध अपभ्रंश भाषा के चरितकाव्यों में सबसे प्राचीन चरितग्रन्थ है ।15 महाकवि वीर अपभ्रंश भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्होंने मालवा के धक्कड़वंश-तिलक तक्खडु श्रेष्ठी की प्रेरणा से उक्त काव्य की रचना की थी। ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम देवदत्त था जो लाडबागड़ गोत्रीय तथा गुलखेड देश के निवासी थे ।16 पिता भी कवि थे, उनकी चार रचनामों का उल्लेख प्राप्त है । वीर ने अपने पिता को स्वयंभू तथा पुष्पदन्त के पश्चात् तीसरा स्थान दिया है । इनकी माता का नाम सन्तुवा था। इनकी चार पत्नियाँ और नेमिचन्द्र नाम का एक पुत्र भी था। वीर भक्तिरस के कवि थे, उन्होंने जिनमन्दिर बनवाकर प्रतिष्ठा कराई थी। ग्रन्थ की निम्न प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि विक्रम के 1076 वर्ष बीत जाने पर माध शुक्ल दशमी के दिन जंबूसामिचरिउ रचा गया अतः वीर का समय वि. सं. 1076-57= 1019 ईसा मानना चाहिए । प्रशस्ति है - विक्कमनिवकालानो छाहात्तरदससएसु वरिसाणं । माहम्मि सुद्धपक्खे दसम्मि दिवसम्मि संतम्मि ।। 2 ।। महाकवि वीर की यह एक ही रचना उपलब्ध है। इसमें 11 संधियां हैं । मंगलाचरणोपरान्त दुर्जननिन्दा-सज्जनप्रशंसा की गई है तथा पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण भी वीर कवि ने किया है। इसमें शास्त्रीय महाकाव्य के सभी लक्षण घटित होते हैं । महाकवि ने ग्रन्थ के बीच बीच में संस्कृत में आत्मप्रशंसा की है परन्तु कथा-प्रवाह में सभी कथानकरूढ़ियों का निर्वाह किया गया है यद्यपि नाना साहित्यिक शैलियों और वर्णनों के अनुसरण के मोह से कथानक अस्वाभाविक हो उठा है ।। इस पर अश्वघोष कृत सौन्दरनन्द की अत्यल्प छाया देखी जा सकती है। सभी रसों, अलंकारों, गुणों और छन्दों का सुन्दर समन्वय यहाँ हुआ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है जिसमें सम्भवतः वीर ने अपने ही व्यक्तित्व का प्राकलन किया है -
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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