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________________ जैन विद्या (व्यक्ति) मरणभय के कारण छिपता रहता है, तब ( भी ) ( मरण से ) बचता नहीं है । ( वह) मोक्ष सुख को (तो) चाहता है, ( किन्तु ) ( उसको) प्राप्त नहीं कर पाता है । आश्चर्य है फिर भी ( वह) मनुष्यरूपी पशु भय और काम के वशीभूत ( होकर ) अपने हृदय में पीड़ा सहन करके शरीर को जलाता है । 2.11 ( धम्म) 1 / 1 भूकृ ग्रहसा लक्खणल क्खिउ [ ( अहिंसा) - ( लक्खल क्खिप्र ) 1 / 1] किज्जइ ( क + किज्ज) व कर्म 3 / 1 सक श्रागमेरण ( आगम ) 3 / 1 सुपरिक्खिउ ( सुपरिक्ख + सु - परिक्खिश्र ) भूकृ 1 / 1 | श्रागम (आगम) 1 / 1 सो (त) 1 / 1 सवि जि ( अ ) = ही जित्थु ( अ ) = जहां पर द (दया) 1 / 1 किज्जइ ( क + किज्ज) व कर्म 3 / 1 सक पुष्वावर विरोहू [ ( पुव्व) + (प्रवर) + विरोहु ) ] [ ( पुव्व) वि - ( अवर) वि - ( विरोह) 1 / 1] न ( अ ) = नहीं कहिज्जइ ( कह ) व कर्म 3 / 1सक धर्म अहिंसा-लक्षण के रूप में परिभाषा किया हुआ ( है ) ; ( यह परिभाषा ) ग्रागम के द्वारा भली प्रकार से जांची हुई ( है ) । ( इसलिए ) ग्रहण की जाती है । संकेत सूची आगम वही ( है ) जहां पर दया वर्णन की जाती है (और) पूर्वापर ( पूर्ववर्ती और परवर्ती में ) विरोध नहीं कहा जाता है । @ प्रक अनि कर्म (क्रि वि धम्मु प्रहिंसालक्खणल क्खिउ किज्जइ श्रागमेण सुपरिक्खिउ । श्रागम सो जि जित्यु दय किज्जइ पुग्वावर विरोहु न कहिज्जइ । ༡༣ སྠཽ སྒྲ ཁ भवि भाव भू अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) । अकर्मक क्रिया अनियमित कर्मवाच्य क्रिया विशेषण अव्यय ( इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) । प्रेरणार्थक क्रिया भविष्यत्काल भाववाच्य भूतकाल भूक व वकृ वि विधि स संकृ सक सवि स्त्री हेक --- 115 भूतकालिक कृदन्त वर्तमानकाल वर्तमान कृदन्त विशेषण विधि सर्वनाम सम्बन्धक कृदन्त सकर्मक क्रिया सर्वनाम विशेषण स्त्रीलिंग हेत्वर्थ कृदन्त इस प्रकार के कोष्ठक में है । मूल शब्द रखा
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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