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________________ जैन विद्या 91 है। धनपाल की धारणा है कि वही व्यक्ति शूरवीर या पंडित है जो परायी स्त्रियों के चंचल नेत्र और काम-पूर्ण वचनों से प्रभावित न हुआ हो होइ जुवाणभाउ सवियारउ, अमुरिणयकज्जाकज्जपयारउ । रणयणइं होंति जुवाणहं मुद्धउ, तरुणिवयणदसणरस लुखउ। जोवरणवियाररसवसपसरि, सो सूरउ सो पंडियउ । चलमम्मण वयणुल्लावहिं जो परितियहि ण खंडियउ॥ 3.18 समस्त दुष्कर्मों की जड़ अधर्म को मानते हुए धनपाल ने अधर्म की बड़ी निन्दा की है खयं जाइ नूणं अहम्मेण धम्म, विणद्वेण धम्मेण सव्वं प्रकम्म। - 3.26.7 कवि की दृष्टि में सभी कर्मों का साधक पुण्य है - सिझइ किण्ण परह कयउण्णहं, होइ सव्व परिवाडिए पुण्णहं । 3.14.11 धनपाल बड़े प्रात्म-विश्वासी हैं। विपत्ति में धैर्य धारण करने की प्रेरणा देने के लिए वे ऐसा महत्त्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित करते हैं जो शायद आज तक किसी भारतीय नीतिकार ने नहीं कहा । उनके अनुसार जिस प्रकार अनचाहे दुःख व्यक्ति को कभी भी घेर लेते हैं उसी प्रकार क्या कभी सुख आकस्मिक नहीं पा जाते ? प्रणइच्छियइं होंति जिम दुक्खइं,सहसा परिणति तिह सोक्खइं। 3.17.6 जीवन-आस्था धनपाल का प्रमुख लक्ष्य है। भविष्यदत्त के कथन के रूप में उनका विश्वास है कि जिस प्रकार प्रायु समाप्त होने पर जिया नहीं जा सकता उसी प्रकार प्रायु सीमा समाप्त न होने तक मृत्यु कैसे हो सकती है ? फिर मृत्यु का भय कैसा? - खुट्टइ जीविज्जइ जेम पवि, तेम प्रखुट्टइ एउ मरण ॥ 3.12.13 सरूपा के प्रति सरल व्यवहार करने तथा दुष्ट वचन न कहने का निवेदन भविष्यदत्त ने अपनी मां से किया है। इससे स्पष्ट है कि धनपाल अपने विरोधी के साथ भी कपटपूर्ण आचरण और दुर्वचन पंसद नहीं करते (11-5) । उनका तो कहना है कि वाणी केवल सुनने में ही मधुर न हो अपितु बोलने का ढंग भी ऐसा हो जो आकर्षक लगे ताकि मन पर अच्छा प्रभाव पड़े - जंपिज्जहि जणणयणादंणु। 3.19.4 किसी भी काम को शंकाग्रस्त मन से करना समय की निरर्थकता तथा असफलता का सूचक होता है। नीतिकार मानते हैं कि यदि किसी काम की स्थिति अथवा परिणाम में थोड़ी भी शंका हो तो उसे जीवन भर नहीं करना चाहिये
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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