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________________ जनविद्या 'भविसयत्तकहा' में पाश्चात्य समीक्षा के शील वैचित्र्य को अच्छी तरह देखा जा सकता है । इसमें एक महनीय चरित अपने काव्यात्मक वातावरण एवं परिस्थितियों के विभिन्न व्यापारों के साथ चित्रित हुआ है । चरित-काव्यों की शैली के अनुरूप वक्ता-श्रोता परम्परा के रूप में इस कथा को लिखा गया है । वक्ता हैं गणधर गौतम और श्रोता हैं राजा श्रेणिक । कुरुजंगल देश, भूपाल नामक राजा और धनपाल नामक वाणिक् के चरितवर्णन के साथ कथा का प्रारम्भ किया गया है । परम्परा के अनुसार इसमें मंगलाचरण, सज्जन-प्रशंसा, दुर्जन-निन्दा, काव्य-रचना का प्रयोजन, प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में देव-वन्दना तथा अन्त में प्रात्म-परिचय, नायक के साहसिक कृत्यों, रोमांचक यात्राओं तथा प्रतिमानवीय शक्तियों का काव्यात्मक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। • लोक-काव्यों तथा चरित-काव्यों की तरह इसमें कथानक रूढ़ियों का पूर्णतया समावेश किया गया है जैसे—सौतेली माता की ईर्ष्या, भाई का विश्वासघात, नायक का निर्जन नगरी में पहुंचना, दैत्य द्वारा बन्दिनी बनायी गई राजकुमारी का नायक द्वारा उदार, नायक का राजकुमारी से विवाह. नववध का अपहरण, नायिका के शील की रक्षा. अलौकिक शक्तियों की सहायता से नायिका की प्राप्ति, मुनि से मेंट, पूर्वभवों का वर्णन, विमान-यात्रा, पूर्वभव के मित्रों द्वारा संकट में नायक की सहायता, शुभ-अशुभ शकुन, पक्षी द्वारा संदेश भेजा जाना इत्यादि-इत्यादि । "भविसयत्तकहा" की शैली महाकाव्य की शैली है। इसकी 22 संधियों तथा 344 कडवकों में जीवन का सम्पूर्ण वृत्त आलंकारिक शैली में निबद्ध हुआ है। प्रबन्ध-काव्यों की छन्द-योजना, वर्णनशैली तथा काव्य-रूढियों का सम्पूर्ण समावेश इसमें है। यह रचना कडवक-बंध-शैली में रचित है। पज्झटिका या अडिल्ल छंद की अनेक पंक्तियां लिखकर अन्त में घत्ता का ध्र वक देना कडवक है । कडवकसमूह से संधि निर्मित होती है और चार पद्धडिका छन्द से एक कडवक-कडवक समूहात्मक: संधिस्तस्यादौ । चतुभिः, पद्धडिकाडुग्छन्दोभि; कडवकम् । (हेम छन्दोऽनुशासन 6.1 टीका) । पद्धडिका सोलह मात्रा का सममात्रिक चतुष्पदी छंद है जिसका अन्तिम चतुष्कल प्राकृत पैंगलम् (1.125) के अनुसार पयोधर (1S1, जगण) होना आवश्यक है । हेमचन्द्र पादान्त में जगण का होना अनिवार्य नहीं मानते । कविदर्पणकार (2 37) ने कडवक-विधान के लिए पद्धडिया छंद का होना ही अनिवार्य नहीं माना है, दूसरे छंद भी हो सकते हैं । - पद्धडिकादिछन्दांसि चत्वारि चत्वारि कडवकम् । प्रादि शब्दाद्वदनादिपरिग्रह तेषां च कडवकानां गणसंधि संज्ञा । स्वयंभू ने पादाकुलक और अडिल्ल छंद का प्रयोग कडवकविधान में किया है । भविसयत्तकहा में पद्धडिका का व्यापक रूप में प्रयोग है किन्तु इसके
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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