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________________ जनविद्या 75 इस प्रकार घुला-मिला दिया है कि वे अाकर्षक हो गये हैं। धनपाल मात्र कवि ही नहीं वरन् एक धर्मनेता भी हैं। वे जानते हैं कि सामान्य जन हृदय दर्शन के शुष्क सिद्धांतों की अपेक्षा सरस भावात्मक साहित्य से अधिक प्रभावित होता है । इसी कारण उन्होंने लौकिक पाख्यानों को धर्मरूप और धार्मिक प्रसंगों को लौकिक रूप प्रदान किया है। हिन्दी के सूफी कवियों ने आगे चलकर यही पद्धति अपनायी। उन्होंने भी सूफी धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की व्याख्या करने तथा अपने मत का उपदेश देने के लिए लोक में प्रचलित प्रेमकथानकों का प्राश्रय लिया। जायसी के पद्मावत की मूल प्रेरणा क्या थी और उन्होंने भविसयत्तकहा या जैनों द्वारा रचित कथाकाव्यों से कितना कुछ ग्रहण किया यह शोध का विषय है किन्तु इतना स्पष्ट है कि अपने धार्मिक सिद्धान्तों के प्रचार के लिए इन सूफियों ने उन लौकिक निजन्धरी कथानों का प्राधार लिया था जिनकी परम्परा का सत्रपात यों तो बहुत पूर्व ही हो गया था किन्तु उस धारा का व्यापक विस्तार जैन कवियों द्वारा हुमा, जिनमें धनपाल का विशिष्ट महत्त्व है । अतः यह कहना कि प्रेमकथानों का सूत्रपात सूफियों के द्वारा हुआ है और वे भारत की भूमि में रोपी गयी अरबी कलम हैं, उचित नहीं है। डा० शम्भूनाथ सिंह ने 'भविसयत्तकहा' को रोमांचक शैली का महाकाव्य माना - है किन्तु इसमें प्रबन्ध-काव्य, कथा, पाख्यायिका, चरितकाव्य, धर्मकथा सभी तत्त्वों का समावेश हुमा है। इस परम्परा का विकास गोस्वामी तुलसीदास के 'मानस' में भी मिलता है। उनका मानस कथा भी है, चरित भी, पुराण भी, और काव्य तो सर्वोपरि है ही। वे स्वयं कहते हैं (क) रामकथा मंदाकिनी (ख) मैं जिमि कथा सुनि भवमोचिनि (ग) करहुँ कथा मुद मंगल मूला (घ) भाषाबंध करब मैं साईं (ङ) भाषा निबन्ध मति मंजुल मात नीति (च) रामचरित मानस ऐहिनामा (छ) कहं रघुपति के चरित अपारा इत्यादि । रचनाकार ने "भविसयत्तकहा" को कथा कहा है-निसुणंतहं एह हिम्मल पुरणपवित्तकह (1.4) । यह कथन सत्य भी है क्योंकि इसका लक्ष्य श्रुतपंचमी व्रत का माहात्म्य परिणत करना है। कथा के अन्त में व्रत का फल . बताया गया है। उपदेशात्मक वर्णन, धार्मिक विवेचन, सिद्धान्त-कथन, कर्मफल की प्रधानता आदि के कारण इसका रूप धर्मकथा का है। इसके अतिरिक्त इसमें चरित-काव्य की विशेषताएं भी सन्निहित हैं। अपभ्रंश के चरित-काव्यों की विशिष्टता है-कथावस्तु में व्यास का समावेश । कथावस्तु में दो तत्त्व होते हैं - मायाम और व्यास । प्रायाम से तात्पर्य है सम्पूर्ण जीवन को प्रायतकर सीधी रेखा में गतिशील होनेवाली कथा और जब संघर्षों के उत्पन्न होने से कथावस्तु विभिन्न घटनाओं के ताने-बाने बुनने लगती है तब "व्यास" गुण उत्पन्न होता है। चरितकाव्यों में कथा का प्रायाम छोटा और व्यास विस्तृत होता है । मूल कथानक के चुने तथ्यों के अतिरिक्त लोक में इधर-उधर व्याप्त देश, काल और व्यक्ति सम्बन्धी उन तथ्यों को प्रस्तुत करना जिनसे नायक का कोई गौरव चाहे वह वीरत्वसूचक प्रशवा त्याग सूचक हो-व्यक्त होता हो, चरितकाव्यों के लिए अनिवार्य है।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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