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________________ जनविद्या संस्कृत और प्राकृत के पश्चात् अपभ्रंश को ही तीसरा स्थान दिया गया है । अपभ्रंश भाषा एक सशक्त देशभाषा स्वीकार की गयी है। यद्यपि कुछ विद्वान् यथायाकोबी, कीथ आदि ने इसे देशभाषा स्वीकार नहीं किया है परन्तु कई अन्य भाषावैज्ञानिकों यथा-पिशेल, ग्रियर्सन, भण्डारकर, वुलनर, चटर्जी आदि ने इसे देशभाषा स्वीकार किया है। छन्दस की प्रार्य-वाणी "संस्कृत" की तुलना में पाणिनीय संस्कृत भी केवल देशभाषा थी । पाणिनीय संस्कृत जब साहित्यिक भाषा बन गयी तब पालि एवं प्राकृत देशभाषा के रूप में विकसित हुई और इन्हीं भाषाओं में महात्मा बद्ध एवं भगवान महावीर ने अपने उपदेश दिये । परन्त जब प्राकृत भी साहित्यिक भाषा बनने लगी तब अपभ्रंश भाषा का विकास देशभाषा के रूप में हुआ। संस्कृत के विद्वानों ने तो अपभ्रंश को देशभाषा कहा ही, स्वयं अपभ्रंश कवियों यथा-स्वयंभू, पुष्पदन्त ने भी इसे देशभाषा बताया है। कालान्तर में अपभ्रंश भाषा भी देशभाषा से केवल साहित्यिक भाषा बन गयी एवं जनता से दूर हटती गयी और जैसाकि ऊपर कहा गया है, तत्पश्चात् आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ । शौरसेनी/नागर अपभ्रंश से गुजराती एवं प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) का, पैशाची अपभ्रंश से लहंदा और पंजाबी का, ब्राचड़ अपभ्रंश से सिंधी का, महाराष्ट्री अपभ्रंश से मराठी का, अर्द्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी का और मागधी अपभ्रंश से बिहारी, बंगाली, उड़िया और प्रासामी भाषाओं का विकास हुआ है। प्रारम्भ में इन भाषाओं में बहुत कम भिन्नता थी किन्तु समय के साथ-साथ रहन-सहन, प्रान्तीयता, संस्कृति तथा राजनैतिक कारणों से ये भाषाएं एक दूसरी से दूर होती गईं। जैसाकि पूर्व के अंकों में कहा जा चुका है, अपभ्रंश साहित्य अत्यन्त विशाल रहा है, इसकी हजारों की संख्या में पाण्डुलिपियां हैं जिनमें से अधिकांश जैन शास्त्र भण्डारों एवं मन्दिरों में उपलब्ध हैं। इनमें अधिकांश अप्रकाशित हैं । महापंडित राहुल सांकृत्यायन के द्वारा अपनी "हिन्दी काव्यधारा" में जब महाकवि स्वयंभू एवं अपभ्रश का उल्लेख किया गया तब विद्वानों का ध्यान अपभ्रंश भाषा, उसके साहित्य एवं साहित्यकारों के अध्ययन की अोर गया । स्वयंभू एवं पुष्पदन्त के पश्चात् धनपाल (10वीं शताब्दी) अपभ्रंश भाषा का एक महान् कवि हुअा है जिसकी मुख्य रचना "भविसयत्तकहा" ( भविष्यदत्त कथा ) है। वास्तव में अपभ्रंश साहित्य की सामग्री का पहला संग्रह "माटेरियालियन त्सूर केटनिस डेस अपभ्रंश" आज से लगभग 84 वर्ष पूर्व सन् 1902 ई. में जर्मन विद्वान् पिशेल ने प्रकाशित कर भारतीय एवं यूरोपीय विद्वानों के अपभ्रंश अध्ययन के लिए प्रस्तुत किया। जर्मनी के ही एक दूसरे विद्वान् याकोबी ने सन् 1918 ई. में धनपाल के "भविसयत्तकहा" का सम्पादन किया जिससे विद्वानों का ध्यान अपभ्रंश साहित्य के सौन्दर्य और गौरव की ओर आकर्षित हुआ। याकोबी सन् 1914 में अहमदाबाद पाये जहां उन्हें पन्यासश्री गुलाबविजय ने कई पाण्डुलिपियां दिखाई जिनमें "भक्सियत्तकहा" की पाण्डुलिपि भी थी। याकोबी ने इसकी प्रतिलिपि करायी एवं चार वर्ष पश्चात् इसका सम्पादन पूर्ण किया। बड़ोदा सेन्ट्रल लायब्ररी के श्री सी. डी. दलाल
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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