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अपभ्रंश का शिखर महाकाव्य
भविसयत्तकहा -डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव
दसवीं शती के अपभ्रंश-महाकवि धनपाल द्वारा रचित 'भविसयत्तकहा' (भविष्यदत्तकथा) अपभ्रंश के पांक्तेय महाकाव्यों में अन्यतम है। इसकी प्रारम्भिक भूमिका से ज्ञात होता है कि धनपाल ने अपने जन्म से धक्कड़ (धाकड़) वैश्यकुल को गौरवान्वित किया था। उनके पिता का नाम मायेश्वर और माता का नाम धनश्री था। सहज विद्याभिमान के कारण वह अपने-आप को 'सरस्वती का वरद पुत्र' (सरसइ बहुलद्ध महावरेण, 1.4) कहते थे।
'भविसयत्तकहा' की भाषा प्राचीन अपभ्रंश है। यही कारण है कि इसके शाब्दिक प्रयोगों में बहुरूपता और व्याकरण की शिथिलता परिलक्षित होती है। शब्दों में 'य' और 'व' श्रुति (करतलकरयल, कलकल कलयल, दूत=दूव आदि) का प्रयोग प्राचुर्य तथा विशेष्य और विशेषण में लिंग और वचन का विपर्यास भी दृष्टिगत होता है। फिर भी भाषा का समग्रात्मक रूप साहित्यिक अपभ्रंश है।
'भविसयत्तकहा' की लोकोक्ति, वाग्धारा एवं सूक्तिबहुल भाषा में विभिन्न मुहावरों पौर कहावतों के प्रयोग से सरसता का समावेश तो हुआ ही है, लोकजीवन का माधुर्य भी महनीय हो उठा है । लोकजीवन में सर्वप्रचलित कहावत "पानी मथने से क्या घी निकल