SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विद्या 43 __भविष्यदत्त भी पूर्व असुर की सहायता से हस्तिनापुर पहुंचता है और मामा के साथ भूपाल राजा से बंधुदत्त की शिकायत करता है। राजा भविष्यदत्त को भविष्यानुरूपा को लौटाने तथा उसके साथ अपनी पुत्री सतारा या सुमित्रा के विवाह की घोषणा करता है और इसके साथ ही आधा राज्य भी भविष्यदत्त को देता है। निर्मलबुद्धि मुनि से पूर्वभव सुनकर दीक्षा ले, तप कर भविष्यदत्त सातवें स्वर्ग में देव होता है। व्रत के प्रभाव से धनपति कमलश्री से क्षमा मांगता है। कमलश्री यथायोग्य तप कर स्वर्गादि प्राप्त करती है। कुछ कथाओं में इतनी कथा और है-जब भूपाल राजा बंधुदत्त को देश निकाला देता है तब वह पोदनपुर के राजा युगराज के दरबार में पहुँच कर भविष्यानुरूपा तथा सतारा का सौन्दर्य वर्णन कर उन्हें प्राप्त करने के लिए युगराज को भड़काता है । युगराज युद्धार्थ निकल पड़ता है । भविष्यदत्त की वीरता और कौशल से भूपाल की विजय होती है। भविष्यानुरूपा के दोहद की इच्छा से सभी मैनाक पर्वत पर जाकर वापिस आते हैं। समाधिगुप्त मुनिराज से पूर्वभव सुनकर भविष्यदत्त दीक्षा ले तप कर निर्वाण प्राप्त करता है। अन्य भी यथायोग्य स्वर्गादि प्राप्त करते हैं। श्रुतपंचमी व्रत के माहात्म्य तथा अन्तिम मंगल के साथ कथा समाप्त हो जाती है । इस कथा को प्राधार बनाकर लिखे गये ग्रंथों का विवेचन निम्नवत् हैनागपंचमीकहा इसके 'पंचमीकहा' और 'भविष्यदत्ताख्यान' ये दो नाम और मिलते हैं। इसके रचयिता महेश्वर सूरि के सम्बन्ध में निम्न प्रशस्ति उपलब्ध है वोपक्खुज्जोंयकरो दोसासंगेण वज्जियो प्रभयो । सिरिसज्जण उज्झामो अउम्वचंदुव्व प्रक्खत्थो ॥ सीसेरण तस्स कहिया दस विकहाणा इमे उ पंचमिए । सूरिमहेसरएणं भवियारण बोहणठाए ॥ उक्त प्रशस्ति के अनुसार कर्ता महेश्वरसूरि सज्जन उपाध्याय के शिष्य थे। इसकी पुरानी ताडपत्रीय प्रति वि. सं. 1109 की उपलब्ध है अतः महेश्वरसूरि का समय अधिक से अधिक ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी माना जाना चाहिए । डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, डॉ. गुलाबचंद चौधरी डॉ. जगदीशचन्द्र जैन आदि विद्वानों ने महेश्वर का यही काल स्वीकार किया है। महेश्वरसूरि संस्कृत और प्राकृत के अप्रतिम विद्वान् थे। उनका कथन है कि अल्पबुद्धि लोग संस्कृत कविता नहीं समझते अतः प्राकृत काव्य की रचना कर रहा हूं।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy