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________________ जनविद्या 117 -इस संसार में कोई भी जीव स्वभाव से निर्मल और अनादि से सिद्ध नहीं होता। -यह जीव अकेला ही जाता है। -जैसे पक्षी वृक्ष को छोड़कर चला जाता है वैसे ही यह जीव शरीर को छोड़कर चला जावेगा। -जीव चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करता हुआ सदा दुःखी रहता है। -जीव अकेला ही जन्म लेता और अकेला ही मरता है। -संसार में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहां जीवों ने जन्म और मरण नहीं किये हों। -शरीर और चेतन में परस्पर विरोधी गुण होने से दोनों एक नहीं हो सकते। .. -संसार में प्राणियों की चेष्टाएं नट की चेष्टाओं के समान विचित्र होती हैं। -कर्म से प्रेरित मृत्यु अपने समय की प्रतीक्षा करती ही है। .. . -प्रायु वायु के समान चंचल है। । -प्रायु हिम के समान शीघ्र गलनशील है। प्रायु की स्थिति घटी-यन्त्र की जलधारा के समान शीघ्रता से कम होती रहती है। -प्रायु प्रतिक्षण नष्ट हो रही है । -प्रायु नित्य ही यम से प्राक्रान्त है। -प्रायु ही अपनी रक्षा का कारण है, उसका क्षय हो जाने पर सब प्रकार से क्षय हो जाता है। - प्रायुकर्म की समाप्ति पर मृत्यु निश्चित है । - प्राशा सब वस्तुओं की होती है । - मनुष्य को प्राशा बहुत बड़ी होती है । - धर्मरूपी बंधु के द्वारा जीव प्राशारूपी पाश से मुक्त हो जाते हैं ।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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