SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 94 जैनविद्या हरयाणा) में बसे गजपुर (हस्तिनापुर) की सम्पन्नता पर खड़ी की गई है । इस नगर की सम्पन्नता के सूचक राजा तथा नगरश्रेष्ठी हैं। भूपाल नामक राजा इस नगर का शासक है और धनवइ (धनपति) नगरश्रेष्ठी है । ये दोनों ही विशेष नाम नहीं हैं । वस्तुतः एक राजसत्ता है और दूसरा घनसत्ता । धनपति का विवाह दूसरे नगरसेठ हरिबल की पुत्री कमलश्री से होता है । हरिबल को हरिदत्त ही बताया गया है । "हरि" विष्णुवाची है और कमलश्री वैष्णव पुराणों के अनुसार उनकी पत्नी । धनपाल ने इन दोनों को अपने ढंग से लोक-जीवन में एक कथा रच कर उतारा है और उसके माध्यम से अपने युग तथा समाज को संदर्भित किया है। ___ उस समय वैवाहिक जीवन की सफलता संतान की उत्पत्ति में मानी जाती थी। आज भी इस भावना का अंत नहीं हुआ है, यद्यपि परिवार छोटे रखने के लिए मानसिकता बनाई जा रही है । सन्तान न होने पर स्त्रियों का साधुओं-मुनियों की शरण में जाना और वरदान प्राप्त करना हमारी प्राचीन कथाओं का मुख्य अंग रहा है । "भविसयत्तकहा" में भी "कमलश्री" मुनि के पास जाकर संतान प्राप्ति की कामना व्यक्त करती है और उनकी भविष्यवाणी के अनुसार उसे भविष्यदत्त प्राप्त होता है । पुरुषों के बहुपत्नीत्व का धनपाल की कथा-रचना में प्रमुख स्थान है। युगीन संदर्भ में एकाधिक विवाह एक मान्य प्रथा थी। धनवई का दूसरा विवाह “सरूपा" के साथ हो जाता है । यह “सरूपा" शब्द भी विशेषण मात्र है । उस युग के धनी सेठ बहु-पत्नी प्रथा के शिकार थे और वे रूपवती नव-यौवनाओं की खोज में रहते थे । धनपाल के काव्य का यह युगीन संदर्भ आज भी मानसिकता के स्तर पर नहीं बदला है, केवल कानून ने उन्हें ऐसा करने से वजित किया है । विचारणीय यह है कि धनपाल ने धार्मिक काव्य रच कर मनुष्य की जिन दूषित मनोवृत्तियों के प्रति घृणा को उभारा है, वे मनोवृत्तियां आज भी जीवित हैं । काम-वासना ही बहु-विवाह के मूल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, यह तथ्य धनपाल प्रकाश में लाना चाहता है, क्योंकि वह "कमलश्री" का घर से निष्कासन तब दिखाता है, जबकि वह भविष्यदत्त जैसे सुन्दर एवं गुणवान् पुत्र की मां बन चुकी है। इस वासना पर धनपाल स्वयं अनेक प्रहार करता है और इसके पोषक दोषों के प्रति भी सावधान करता है । वह मधु, मद्य और मांस का भक्षण वर्जित करता है । कहता है महु मज्जु मंसु पंचुवराई। खज्जंति रण जम्मंतरसयाई॥ 16.8 किन्तु जिनके पास धन है, वे वासना-जन्य दोषों के शिकार बने ही रहते हैं । "भविसयत्तकहा" की कथा काम और उसके पोषक धन की पिपासा के सहारे ही आगे बढ़ती है । उसमें एक ऐसा युग प्रस्तुत होता है जिसमें एक ओर आर्थिक विपन्नता है तो दूसरी ओर कुछ लोगों की आर्थिक सम्पन्नता, विलास और तज्जन्य गृह-कलहयुक्त आत्मसुख के लिए संघर्षरत है। इसी संघर्ष में एक ऐसा समाज उभरता है जिसकी मनोवृत्तियाँ
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy