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________________ जैन विद्या ग़जों के मद और घोड़ों के फेनों के कीचड़ में और शंका उत्पन्न करनेवाले ताम्बूलों की पीकों में खप जाता है, जहाँ विजय- दुन्दुभियों के स्वरों के कारण नर-नारियों को कुछ भी सुनाई नहीं देता । निर्धनता का बिम्ब गीर कव्वु व कुकइहि केरउ, तं जिह तिह पुणु गिरलंकारउ । श्रट्ठभाउ हंडई दो पियर, कयखल चरणयमुट्ठिश्राहारई ॥ फse afar वक्कल कासई, हड हड फुट्ट फरूस सिर केसई । श्रम्ह दह जगाई तहिं सयगई कलहंतई भासिय दुव्वय राई || पंडुरपविरलदीहरदंत वच्छ परकम्भु करंतई । 69 22.15. 3-7 उसका घर कुकवि के काव्य की तरह नीरस और अलंकार रहित था । आठ भाईबहन, पीतल के दो हण्डे, खल और चनों का मुट्ठी भर आहार करनेवाले । कमर तक वल्कल, निकले हुए सफेद होठ, सफेद केश राशि । उस घर में दस आदमी आपस में लड़ते हुए और कठोर शब्द करते हुए उस लम्बे विकट दाँतों वाले दूसरे का काम करते हुए रह रहे थे । यह निर्नामिका की निर्धनता का विराट चित्र है जो उसकी कातरता, व्यथा, पीड़ा, तड़प एवं दीनमूर्तिको बिम्बित करता है । " निर्नामिका” नाम स्वयं अपने में करुणा उत्पन्न करने वाला है । उसकी लोमहर्षक, सर्वग्रासी एवं स्तब्धकर निर्धनता में वेदना की गहन अनुभूति संवेदनीय बन गयी | शब्द - योजना ध्वन्यात्मक है जिसमें अभिशप्त जीवन की तीखी गूंज है । स्पृश्य- बिम्ब गालों पर हाथ रखी बाला का बिम्ब स्पष्ट करते हुए कवि कहता है - तरल तमाल तालताली घरिण, गइ गरिदि रणवकं केल्लीवरिण । फलिहसिलायल म्भि श्रासीणी परभवपिय संभरणें भीगी । सुइरू महारुहाउ संचालिवि, कोमलकरकमलें तणु लालिवि । raai दिरिण कर रिप हियकवोली, पंडुगंडविलुलि चिराली । 22.13. 1-4 चंचल तमाल, ताल और ताली वृक्षों से सघन, नव अशोक वन में, महावृक्षों को बहुत समय तक संचालित कर कोमल हाथरूपी कमल से शरीर को सहलाकर वह बाला स्फटिकशिला पर बैठी थी । एक दिन, जिसने अपना हाथ गालों पर रख छोड़ा है और जिसके सफेद गण्ड - तल पर बालों की चंचल लटें हैं, ऐसी नवकदली के समान कोमल उस बाला से धाय ने कहा ।
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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