SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 68 जैनविद्या प्रयुक्त हुआ है। इसका कठोर रूप में प्रयोग स्वभाव-चित्रण, यथार्थ-चित्रण, काया-क्लेश एवं जीवन की नश्वरता के चित्रण के प्रसंग में सर्वाधिक रूप में हुआ है। णिक्कारणु दारुणु बद्धरोसु, दुज्जणु ससहावें लेइ बोसु । हयतिमिरयर वरकरणिहाणु, ण सुहाइ उलयहो उइउ भाणु ॥ जइ ता किं सो भंडियसराह, रणउ रुच्चइ वियसिय सिरि हराहं। को गणइ पिसुणु अविसहिय तेउ, भुक्कउ छरणयंबहु सारमेउ ॥ 1.8 __ अत्यन्त करुणाहीन, भयंकर और क्रोध करनेवाला दुर्जन स्वभाव से ही दोष ग्रहण करता है । अन्धकार-समूह को नष्ट करनेवाला और श्रेष्ठ किरणों का निधान तथा उगता हुआ सूर्य यदि उल्लू को अच्छा नहीं लगता तो क्या सरोवरों को मंडित करनेवाले तथा विकास की शोभा धारण करनेवाले कमलों को भी वह अच्छा नहीं लगता ? तेज को सहन नहीं करनेवाले दुष्ट की गिनती कौन करता है ? कुत्ता चन्द्रमा पर भौंका करे। कोमल गतिशील चाक्षुष-बिम्ब कुसुमरेण जहि मिलियउ पवणल्ललियउ करणंयवण्ण मह भावह । विरणयरचूडामणियइ णहकामिरिणयइ कंचुउ परिहिउ गावइ ॥ ___13. 12-13 पवन से उड़ता हुआ, सुनहला मिश्रित कुसुम-पराग मुझ कवि पुष्पदंत को ऐसा लगता है मानो सूर्यरूपी चूड़ामणिवाली आकाशरूपी लक्ष्मी ने कंचुकी पहन रखी हो। कवि ने उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीक, मिथ आदि की सहायता से भव्य बिम्बों का निर्माण किया है । सूर्यास्त का चित्र अंकित करते हुए कवि कहता है - - तावत्थ इरि सूरु संपत्तउ । णं दिणराएं भेंदुउ चित्तउ ॥ 35.12.1 अस्ताचल पर पहुँचा हुआ सूर्य ऐसा लग रहा है मानो दिनराज द्वारा फेंकी गयी गेंद पश्चिम दिशा की परिधि में जाती हुई शोभित हो रही हो। इसमें उत्प्रेक्षा अलंकार के माध्यम से गतिशील चाक्षुष-बिम्ब की सम्यक् व्यंजना की गयी है। श्रव्य बिम्ब-योजना वस्तु वर्णन के प्रसंग में कवि ने श्रव्य-बिम्ब का प्रयोग सर्वाधिक रूप में किया है। नगर की भव्यता का बिम्ब प्रस्तुत करते हुए कवि ने लिखा है - कामिणिकमवियलियकुंकुमेण जिल्हसइ जंतु जहिं जणु कमेण । कणिरणियसुकिकिरिणसंणेहि गुप्पइ रिणवडंतहिं भूसोहं ॥ खुप्पइ गयमयहयफेणपंकि तंबोलुग्गालइ जरिणयसंकि । जहि विजयवडहदुंदुहिसरेहि सुव्वइ ण कि पि णारीणरेहि ॥ 1.16 " कामिनियों के पैरों से विगलित कुंकुम के कारण जिस नगर के राजपथ पर मनुष्य _ फिसल जाते हैं, रुनझुन करती हुई किंकिणियों के खिसक पड़ने से मनुष्य गिर पड़ता है,
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy