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________________ जैन विद्या नवकदली के समान कोमल शरीरयष्टि, मुखमण्डल पर लटों का छितराना, अधखुली आँखें, गालों पर हाथ रख कर बैठना - ये सब आकर्षक तो हैं ही, बाला की मनःस्थिति को भी बिंबित करते हैं । कवि ने बिम्बों द्वारा कान्ति, दीप्ति, लावण्य आदि सौंदर्य के उपादानों को मानस-प्रत्यक्ष कराकर सौंदर्यात्मक अनुभूति को स्पष्ट किया है । मानवीकरण को पाश्चात्य आलोचना की देन कहा जाता है किन्तु महाकवि पुष्पदंत ने इसका प्रयोग पर्याप्त परिमाण में किया है। चन्द्र-किरणों से आहत कमलिनी के आँसुओं को पोंछते हुए सूर्य का चित्रण मानवीकरण के द्वारा पुष्ट स्पर्श-बिम्ब का सुन्दर उदाहरण है। ससिपायाहया, दुक्खं पिव गया। अलिरवरसरिणया, रूपइ व भिसिणिया। दंसइ पविमलं, प्रोसंसुयजलं । तं पसरियकरो, पुसइ व तमिहरो॥ 4.19. 1-2 जो कमलिनी चन्द्रपादों (किरणों) से आहत होकर दुःख को प्राप्त हुई थी, भ्रमरों के शब्दों से गुंजित ऐसी कमलिनी रो उठती है और अपने प्रचुर प्रोसरूपी आंसुओं को दिखाती है । अन्धकार का हरण करनेवाला सूर्य मानो उसके आँसुओं को पोंछता है । घ्राणिक-बिम्ब क्षीर-समुद्र के स्नान-जल के वर्णन के क्रम में कवि ने उत्प्रेक्षा अलंकार के द्वारा उसे कमल-पराग की धूल से धूसरित और गजकपोलों से झरते हुये मदजल के समान सुगन्धित बताया है। पंकयकेसररयधूसरिउ, कस्सीरयराएं पिंजरिउ । वरणकुंजरकुंभत्थलखलिउ करडयलगलिय मयपरिमलिउ । संचलियसिलिम्मुह चित्तलिउ, पाणामणिकिरणहिसंवलिउ । परिघोलइ सिहरिदहु तरणलं, रणं पंचवण्णु उप्परियणउं ॥ 3.17. 3-7 कमल-पराग की धूल से धूसरित, केसर की लालिमा से पीला, वन-गजों के गंडस्थलों से पतित, गजकपोलों से करते हुए मदजल से सुगन्धित, चलते हुये भ्रमरों से चित्रित स्नान-जल ऐसा लगता है मानो सुमेरु पर्वत का पंचरंगा दुपट्टा उड़ रहा हो । नीति-विषयक उपदेशों के लिए भी कवि ने यत्र-तत्र घ्राण-बिम्ब का प्रयोग किया है । जैसे - . होंति प्रबुह बुहसंगै बुद्धा, चंपय वासें तिल वि सुयंधा । 5.8. पंडितों की संगति से मूर्ख भी पंडित हो जाते हैं जिस प्रकार चम्पा की गंध से तिल भी सुगन्धित हो जाते हैं।
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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