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________________ जनविद्या और "मिथ्याध्यवसिति" के अनवसर प्रयोग का एक उदाहरण तब मिलता है जब वह अत्यन्त घनीभूत एवं आपद-मूलक परिस्थितियों के चक्रवात से संभूत तथा भौतिक संदर्भो से सहवर्तित सात सदृश "अाशंका" चित्रों को अपने उदात्त नायक के नैराश्य से जोड़ता है - ता चिताविउ मरिण रामएउ, एक्कु जि सिहि अण्णु वि वायवेउ । एक्कु जि रवि अण्णु जि गिभयालु, एक्कु जि तमु अण्णु जि मेहजालु । एक्कु जि हरि अण्णु जि पक्खरालु, एक्कु जि जमु अण्णु पुण्णकालु । एक्कु जि विसि अण्णु जि सविसविट्टि, एक्कु जि सणि अण्ण जि तहि मि विट्ठी । एक्कु जि बहमुहु बुद्धरु विरुद्ध प्रणेक्कु तहि जि बलिपुत्तु कुछ । म. 75.4. 1-5 हमारा कवि "काक्वाक्षिप्त व्यंग्य" से उपकृत "विशेषापह नुति" के रूप में एक सीमंत स्पर्शी ओजपूर्ण ऐश्वर्य चित्र का निर्माण तब करता है जब वह अपने एक विग्रह के बीज-वपन में सिद्धहस्त पात्र द्वारा आगे की छह अर्द्धालियों में प्रतिनायक की "गर्व" मिश्रित "असूया" को उबुद्ध करने का प्रयत्न करता है - सिहि रणं करइ तुहारउं भारणसु, उहु वइवसु वइरिहिं तुहुं वइवसु । पेरिउ गरियदिस सा रुंभइ, जाव ग तुझ पयाउ वियंभइ । रयणायर जं गज्जइ तं जडु, तुहुं जि एक्कु तइलोक्कि महाभए। वाउ वाइ किर तुह रणीसासे, बज्झइ फरिणवइ तुह फरिणपासें । चंदु सूर किर तुह परदीवउ, सीहुबराउ वसउ वणि सावउ । ससुरु सणरु खगु जगु तुह बीहरु, पर पई जिणिवि एक्कु जसुईहइ । म. 71.2.1-5 ऐसी ही एक युक्ति का उपयोग "वस्तूत्प्रेक्षा", "व्यतिरेक" और "प्रतीप" से पुष्ट एवं "गर्व" तथा वितर्क से संश्लिष्ट "भ्रम" के रूप में कवि तब करता है जब वह अपने नायक के अन्तःपुर से सम्बन्धित तथा विविध गति व्यापार एवं रेखा-रंग से रंजित एक सौंदर्य चित्र के आलेखन में प्रवृत्त होता है - काइ वि जणणयणहं रुच्चंतिइ, मोरें सहुं सहासु पच्चंतिइ । सोहइ कमलु दुवासिहि परियउं, पालंतालिपिछविच्छ रियउं। पाइं कंडु रइणाहहु केरउ, दावइ सुरणरहियवियारउ । काइ वि समउं वि हंसु चमक्कइ, गइलीलाविलासि सो चुक्कइ । काहि वि छप्पउ लग्गउ करयलि, जड अप्पउं मण्णइ थिउ सयवलि । काहि वि रिणयडउं गं पोलग्गइ, एपउ दोहकडक्खिउ मग्गइ। काइ वि उप्पलु सवरिण णिहित्तउ, कुम्भारणउं रणं गयरिणहि जित्तउं । म. 71.14.17 और आगे की पाँच अर्धालियों का संमिश्रित क्रिया और रंग-समुच्चय कितना मनोहारी है -
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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