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________________ जैनविद्या 61 इसी प्रकार "उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा-माला" के रूप में उसके एक पात्र की आत्म-प्रक्षेपण संबंधी मनोवृत्ति अभिव्यंजना खोज रही है - जोयइ चित्तकड़ पंदणवणु, रणं महिमहिलहि केरलं जोव्वणु । महुधारहिं सित्तउं गावइ मत्तउं मलयाणिलसंचालिउ । रणवतरुवर साहहिं पसरियबाहिं गं गच्चंतु णिहालिउँ । ___ म. 71.11. 10-12 "चतुर्थ प्रतीप" का चमत्कार आदर्श राजा के निदर्शन में खुला उभरा है - तहि वसइ घयावइ पयवइ पयधरण, जे दंडे जित्तउं जमकरण। जे सत्थें जित्त सरासइ वि, जें बुद्धिइ चित्तउ भेसइ वि । जे रिद्धिइ जित्तउ सुखइ वि, जे भोएं जित्तउ रइवइ वि । म. 69.4. 6-8 रामायणकार "शब्द चमत्कार" से पुष्ट "पंचम प्रतीप" के रूप में अपने एक दृढ़ विश्वास को अतिमात्रा में कारणता तब प्रदान करता है, जब वह अपनी नायिका के नख-शिख सौंदर्य की लोकोत्तरता को "इयरहकह" की कलात्मक पुनरुक्ति के साथ यथाक्रम समान अन्तर पर तेईस अर्द्धालियों में इस प्रकार अनुस्यूत करता है - पयकमलहं रत्तरत्तणु जि होइ, इयरह कह रंगु वहंति जोइ । गुंफहं पुणु गूढत्तणु जि चार, इयरह कह मारइ तिजगु मार। * म. 70.10. 1-2 भालयलु वि-अद्धिदु व वरिटूठ, इयरह कह तहु मयणासु दिठ्ठ । कोतलकलाउ कुडिलत्तु वहइ, इयरह कह मारणववंदु वहइ। म. 70.11. 8-9 ऐसे ही वीप्सा" और "ललित" से पुष्ट "काक्वाक्षिप्त व्यंग्य" से उपकृत और "तिरस्कार", "समता" तथा "प्रोज" से गर्भित "दीपक" के रूप में एक वैविध्य चित्र का विनिवेश यह तब करता है, जब वह छह भौतिक संभावनाओं के द्वारा अपने नायक के अनुपमेय ऐश्वर्य के प्रति निष्ठा व्यक्त करता है - कि किज्जइ हरिणु अधीरमइ, जइ लब्भइ सीहकिसोर पइ । कि किज्जइ दीवउ तुच्छछवि, जइ अंधयारु पिट्ठवइ रवि । कि किज्जइ वाइसु जइ गरुलु, सुपसण्णु होइ बहुबाहुबलु । कि किज्जइ खरू जइ दुद्धरहु, पाविज्जइ कंधरू सिंधुरहु । किं किज्जइ पिप्पलु सलसलिउ, जइ दोसइ सुरतरुवरु फलिउ । कि किज्जइ राहउ मुद्धि तइ, रावरणमहिलत्तणु होइ जइ । म.72.11. 1-6
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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