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________________ 56 पविरलपएहि लंघंतु महि, लहु धावइ पावइ बासरहि । थोवंतरि मरणहरु जाइ जवि, कह कह व करंगुलि छित्तु गवि । पहु पारिण पसारइ किर घरइ, मायामउ मउ अग्गइ सरह । दूरंतरि रिणयतणु दक्खवइ, खेलइ वरिसाव मंदगइ । रणववाकंदकवलु भरइ, तरुवर किसलयपल्लव कच्छंतरि सच्छसलिलु पियs, वंकियगलु पच्छाउहुं गियइ । सुयचंचुधायपरियलियफलि, खरि दीसह चंपयचूयतलि । खरिण वेल्लिखिलगि पइसरह, अण्ण्णपएसहि श्रवयर । चरइ । महिरूढउ वारियसूरकर, कामिरिगवेल्लिविलासधर । तुहुं देव पयावहुयास रिणरण हेलइ बड्ढउ वालितरु । जैनविद्या हमारा कवि " बालि - वध" विषयक " असुन्दर व्यंग्य" गर्भित घटनाओं को सरस रूप प्रदान करने के लिए " न्यायत्व", "विषयौचित्य" और "श्लेषगुरण" तथा "पांचाली रीति" तथा 'मध्यम मार्ग" से सहवत 'सांगरूपक" का उपयोग करता है - और अन्यत्र - हयमुहफेरगजलि रणसरवरि सोणियधाराणालचलु । श्रसिचंचुइ लक्खरगलक्खरिणरण तोडिउ वालिहि सिरकमलु । म. 72.4. 1-8 75.9. 9-10 . 75.8. 14-15 आगे वह “माधुर्य”, “सौकुमार्य", "लावण्य", और " सौभाग्य", गुण, "केशिकीवृत्ति" " वक्तृौचित्य", "वैदर्भी रीति", "सुकुमार-मार्ग", "रूढ़ि - वैचित्र्य - वक्रता" और "अन्योक्ति” से पुष्ट अपहनुति के रूप में एक उत्कृष्ट कल्पना का चित्र तब प्रस्तुत करता है, जब वह राम कथा के "बी" अर्थप्रकृति सम्बन्धी फलपरक घटना पर वितर्कपूर्वक विचार करता है - प्रज्जु मिलंतु मच्छ मंदारि वह संसंकपंडुरा । पद्मं मुइ खेर्यारद कह होसइ सा गवधुसिर्णापंजरा । गाउ गाउ भाउ णासणविहि, सीय ण हित्त हित्त परियणविहि । रामु ण कुद्ध कुद्ध जगभक्खड, लक्खणु ण भिडिउ भिडिउ कुलक्खउ । चक्कु रंग मुक्कु मुक्कु जमसासणु, तं णउ लग्गउ लग्गु हुयासणु । वच्छु ण भिण्णु भिण्णु घरणीयलु, रुहिरु ण गलिउ गलिउ सज्जणबलु । तु उपडि पडिउ कामिणिगणु, तुहुं रण मुझो सि मुउ विहलियजणु । चेट्ठ रग भग्ग भग्ग लंकाउरि, दिट्ठि ण सुण्ण सुण्ण मंदोयरि । . 78.24, 1-8 " महापुराणु " में "विचार्यमाण चमत्कार" और " प्रबंधौचित्य" से गर्भित तथा "पदार्थ दीपक" और प्रसन्न " श्लेष " से पुष्ट " उक्त विषया वस्तुत्प्रेक्षा- माला" के रूप में एक बहु विभ्राट् एवं "सन्दर्भसमुच्चय" पूर्ण कविप्रौढोक्तिसिद्ध बिब वहाँ मिलता है, जहाँ "सीता हरण " और "दिवसावसान" विषयक घटनाओं के " वक्तृ औचित्य " एवं "गौडी रीति" से युक्त सहवर्णन मिलता है -
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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