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________________ 55 जनविद्या सरहिं भमरेहिं व मंडिय, जिह वरिण तरु तिह ते रणि खंडिय। जिह वेल्लिउ तिह अंतइं छिण्णइं, जिह पत्तई जिह पत्तई भिण्णई। जिह ताडहलई तिह रिउसीसई, पाडियाइं धरणीयलि.. भीसई । जिह उज्जारणहु गट्ठई चक्कइं, तिह रिउरहवरि भग्गइं चक्कई । जिह सर तिह विद्धंसिय रिउसर, लंकारणयरि पइट्ठा वाणर। _म. 76.8. 8-12 और वह “एकदेश-विवति-रूपक" के रूप में एक ललित कल्पना का प्रयोग तब करता है, जब वह द्वंद्व के व्यापार-ब्यौरे के वर्णन में अग्रसर होता है - पडिभडकालाणलु जोइयभुयबलु विष्फुरंतु मच्छरि चडिउ । महिकरिणिकयग्गडु पसरियविग्गहु कण्हु दसासह अभिडिउ । __म. 78/ध्र वर्क "उक्त-विषयावस्तूत्प्रेक्षा-माला" के रूप में पांच विभिन्न कल्पनाओं का प्रयोग तब हुआ है जब नायक और नायिका के वैवाहिक कार्य तथा व्यापार के वर्णन का एकतान उपक्रम हुअा है - वइदेहि धरिय करि हलहरेण, णं विज्जुल धवलें जलहरेण । णं तिहुयणसिरि परमप्पएण, णं गायवित्ति पालियपएण। . णं चंदें वियसिय कुसुममाल, गोविन्दं णं सिरि सारणाल । म. 70.13. 1-3 . वह एक "लिंगवैचित्र्यवक्रता" से पुष्ट प्रभावोत्पादक सदृश-कल्पना चित्र का निर्माण तब करता है जब वह अपनी ऊँची सहानुभूति के साथ निर्जीव पदार्थों में भी किसी अभिप्राय विशेष के कारण प्राण-संचार करने का कार्य तथा व्यापार अपने हाथ में लेता है - बाहसलिलधारहिं वरसंति व, तूरइं दुहभिण्णाई रसंति व । हउ कट्ठे घडियउ चम्में मढ़ियउ परकरताडणु जं सहमि । णं एउं सजुत्तउं पडहें वुत्तउं तं दसासु महिवइ महमि । म. 78.25. 13-15 "यमक" और "वर्ण-विन्यास-वक्रता" से पुष्ट सूक्ष्म के रूप में एक गूढ़ कल्पना का उपयोग तब मिलता है, जब उसे एक पात्र का "सोद्वेग" कलात्मक रति व्यापार काम्य रहा है - कर मउलिवि सण्णइ का वि पोमु, पावेसमि जावहि सुबइ पोमु । म. 70.19.10 .. आगे कवि ने "स्वभावोक्ति" के रूप में एक प्रसन्न गतिशील विशद चित्र का विधान तब किया है, जब वह एक वन्य मृग के मनमोहक व्यापार को चित्रित करने के लिए उद्यत हुआ है -
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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