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________________ 54 जैनविद्या प्राणिय मिलिय देवि बलहदहु, अमरतरंगिणि गाइ समुदहु । हेमसिसि गावइ रससिद्धहु, केवलणाणरिद्धि गं बुद्धहु । दिव्ववाणि जारिणय परमत्थहु, वरकइमइ णं पंडियसत्थहु । चित्तसुद्धि णं चारुमुरिणबहु, णं संपुण्णकति छणयंबहु । णं वरमोक्खलच्छि अरहंतहु, बहुगुणसंपय गं गुणवंतहु । म. 78.27. 10-14 पुष्पदंत "प्रश्नोत्तर" और "तिरस्कार" से पुष्ट तथा "सौकुमार्य" गुण सहवर्ती "प्रतिवस्तूपमा-माला" के रूप में एक व्यापक कल्पना-चित्र की उद्भावना तब करता है, जब वह नायिका से सम्बन्धित प्रतिनायक की "चिन्ता" की व्यंजना करता है - किं गरलवारिभरियइ सरीइ, किं सविसकुसुममयमंजरीइ । बंधवयणहियवियारणीइ, किं जायइ धीयइ वइरिणीइ । म. 70.7.7-8 ... नीचे "द्वितीय विशेष" के रूप में कवि-प्रौढोक्तिसिद्ध "प्रलाप" बिंब का आयोजन हुआ है, जब उसने कहा है - जहि जाइ तहि जि सो सीय रिणयइ, वारिज्जइ ढक्की केण णियइ । अंधारए वि संमुहउं घडिउं, सीयहि मुहं पेक्खइ दिसहि जडिउं । पारिणउं वि पियइ सो तहिं ससीउ, परवसु वट्टइ वीतद्धगीउ । म. 73.19.10-12 और "यमक", "वर्ण-विन्यास-वक्रता", "उपमा" और "तृतीय निदर्शना" से पुष्ट "तृतीय विषम" के रूप में एक कल्पना-चित्र का निर्माण इस प्रकार हुआ है कि नायक की "व्याधि" और "संज्वर" की "माधुर्य” गुणोपेत व्यंजना नीर-क्षीर के सदृश घुल-मिल गये हैं - तं णिसुरिणवि मुच्छिउ पडिउ रामु, जलसिंचिउ उठ्ठिउ खामखामु । सीयलु विसु विसु व ण संति जणइ, हरियंदणु सिहिकुलु अंगु छणइ । गलिणु वि सूरहु सयणत्तु वहइ, सयरणीयलि चित्तउ देहु डहइ । पियविरहु जलदइ सिहि व जलइ, चमराणिलु तासु सहाउ घुलइ । सरू गेयहु वइरिविमुक्कसर कव्वु कायकव्वासउ । विण सीयइ भावइ राहवहु गाडउ गाडयपासउ ।। म. 73.3. 7-12 पालोच्य कवि “यमक" तथा "वर्णविन्यासवक्रता” से पुष्ट "बिम्बप्रतिबिंबोपमाला" के रूप में एक सजीव कल्पना-चित्र का निर्माण तब करता है, जब वह युद्ध के कार्य में तथा व्यापार के वर्णन में तत्पर होता है - ..
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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