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________________ जैनविद्या afrat fव करग्गहु गोसरइ, कहि वेसायणु कहि गोसरह । foresafe afrasइ रिगहि, कहि कवडहरिणु कहि बंधविहि । मरहरहु मलु दूसणु जिरगहु श्रमय विसु कि सीसइ । गुणवंतहं बस रहतणुरहं वुज्जणु को विग दीसइ । उसी पात्र की गंभीर प्रकृति के बीज को भी सदृश काल्पनिक चित्र की सहायता से व्यक्त किया गया है परहु रंग देइ मणु अवसे मउलइ सकलंकहो । फुल्लइ पडमिरिणय करफंसें कहि मि मियंकहो । . 72.4. 11-12 53 हमारे कवि ने " अर्थान्तरन्यास - विशेष" द्वारा "सामान्य का समर्थन" के रूप में एक स्वतः संभवी उपपन्न चित्र तब खड़ा किया है जब उसे सामान्य वृत्ति के रूपविधान का अवसर हाथ लगा है - कंपइ महि - संचारें ससरसरासरणहत्थहं । संकइ जमु जमदूउ को गउ तसइ समत्थहं । . 70.20. 9-10 और " काक्वाक्षिप्त गुणीभूत व्यंग्य", " अर्थान्तरन्यास" और समलंकृत तथा ‘दृष्टान्त” से पुष्ट एक समान बिब का विधान तब हुआ नायक के प्रताप का शब्द - चित्र उरेदने में तत्पर हुआ है - है पई सीइ श्रज्जु तिलु तिलु करमि भूयहं देमि दिसाबलि । पर पच्छइ दूसह होइ महुं विरहजलगजालावलि । म. 74. ध्रुवकं " देहरी- दीपक" जब वह अपने . 69.13. 10-11 पुष्पदंत ने अनुज्ञा के रूप में अपने प्रतिनायक की दुरासक्ति की व्यंजना तब की है, जब उसके क्रोधाविष्ट होने पर भी वह उसकी प्रांतरिक सहानुभूति को व्यक्त करना नहीं भूला है - . 73.21. 12-13 आगे “अनुक्त-विषया-वस्तूत्प्रेक्षा" के रूप में एक ललित कल्पना - चित्र का प्रयोग सब मिला है, जब हमारा कवि नायिका की "आशंका" की व्यंजना में तत्पर हुआ है - पइवय परपइवयभंगभय, यं पवणें पाडिय ललिय लय । भत्तारविधोयविसंदुलिय, विहिवस सिलसंकडि पक्खलिय । णं कामभल्लि महियलि पडिय, रणं बाउल्लिय कंचरणघडिय । म. 72.7. 6-8 यहीं “उक्त-त्रिषया-वस्तुत्प्रेक्षा - माला " के रूप में "अर्थव्यक्ति" एवं "समता गुण सहवर्ती नायिका" के " हर्षातिरेक" व्यंग्यचित्र का निर्माण हुआ है, जब कहा गया है -
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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