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________________ जैनविद्या 31. प्रकृति-चित्रण भी काव्यकला के उत्कर्ष की कसौटी रही है अतः इस कसौटी पर भी महाकवि पुष्पदंत को परख लेना समीचीन होगा। अपभ्रंश के प्रबंधकाव्यों में प्रकृति को विशद रूप में चित्रित करने का अवकाश यद्यपि बहुत कम रहा है, फिर भी नये-नये उपमानों के माध्यम से कवियों ने नगर, उपवन, वन, पावस, शरद, बसन्त, ग्रीष्मादि ऋतुओं आदि के जो चित्रण किये हैं, वे प्रकृति के प्रति उनके लगाब को व्यंजित कराते हैं । महाकवि पुष्पदंत द्वारा उद्यान-शोभा का जो मनोरम चित्रण किया गया है, वह यहाँ उल्लेखनीय है - "वायं दोलण लीला सारो तरुणाहाए हल्लई मो रो। सोहइ घोलिए पिछ सहासो णं वरण लच्छि चमर विलासो ॥ दिण्णं हंसेणं हंसिए चंचु चुंबतीए । फुल्लामोय वसेरण भग्गो केयइ कामिरणीयाउ लग्गो ॥"19 "महापुराण" में पुष्पदंत जब चन्द्रोदय का वर्णन करते हैं, तो उत्प्रेक्षा की छटा से जैसे दृश्य साकार हो उठता है - "ता उइउ चंदु सुहइ, दिसाइ, सिरि कलसु व पइसारिउ रिसाई। रणं पोमा करथल ल्हसिउ वोमु, रणं तिहुयण सिरि लावण्ण धामु॥ णं अमय विदंसंदोह रुंदु, जस वेल्लिहि केरउ नाई कंदु । माणिय तारासय वत्त फंसु, णं गहसिरि सुत्तर रामहंसु ॥"20 उद्दीपन रूप में "बसन्तऋतु" का चित्रण (महापुराण) विशेष दर्शनीय है, जो साथ ही प्रकृति-चित्रण के माध्यम से आध्यात्मिक संकेत करने की विशिष्ट कला पुष्पदंत को इस क्षेत्र में अद्वितीय बना देती है। ___महाकवि पुष्पदंत की अन्य कृतियाँ हैं - "णायकुमारचरिउ" एवं "जसहरचरिउ", जो क्रमश: 9 संधियों तथा 4 संधियों में समाप्त होनेवाली खण्डकाव्य कृतियां हैं। यद्यपि “णायकुमार-चरिउ" में काव्यात्मकता प्रचुर है और भाषा, छन्द एवं अलंकार का सुष्ठु प्रयोग हुआ है तथापि इस "रोमाण्टिक काव्य" की शैली "महापुराण" जैसी प्रौढ़ नहीं है। यही स्थिति “जसहरचरिउ की भी है। डॉ० रामसिंह तोमर का मत है - "यशोधर-चरित्र में काव्यात्मकता बहुत ही कम है। जहाँ-तहाँ नगरादि के वर्णनों में थोड़ी बहुत सजीवता मिलती है।"31 उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन के आधार पर मैं निःसंदेह कह सकता हूँ कि "सरस्वतीनिलय" एवं "अभिमान-मेरु" के विरुद से अभिमण्डित महाकवि पुष्पदंत अपभ्रंश-काव्याकाश के दीप्तिमान चन्द्रमा हैं और महाकवि स्वयंभूदेव सूर्य बन कर दमक रहे हैं। पुष्पदंत की काव्यकला का शोधपरक मूल्यांकन आज की विशेष अपेक्षा मैं मानता हूँ। 1. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-226 (द्वितीय संस्करण, 1956)
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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