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________________ 30 जैनविद्या "जय संकर संकर विहिय संति जय ससहर कुवलय विष्ण कंति । जय जय गणेस गणवइ जणेर नय वंभ प्रसाहिय वंभ चेर ॥ वेयंग वाइ जय कमल जोणि आई वराह उद्धरिय खोणि । जय माहव तिहुवरण माहवेस महसूयण दूसिय महु विसेस ॥"16 "महापुराण" में अनुश्रुतियां और अवान्तर कथाएँ कवि इस प्रकार पिरोता चलता है कि काव्यगत उत्कर्ष एवं प्रभाव में स्वतः अभिवृद्धि हो जाती है । रसात्मकता की दृष्टि से महाकवि पुष्पदंत यों तो नवरस-परिपाक में निपुण हैं, फिर भी संयोग शृंगार में वे महाकवि स्वयंभू से भी ऊपर हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि महाकवि पुष्पदंत ने "भक्ति” को रस की कोटि में स्वीकार किया है । करुण, वीर, रौद्र, वीभत्स आदि रसों का सुन्दर परिपाक “महापुराण" में हमें मिलता है। जहाँ तक अलंकारविधान का प्रश्न है, महाकवि पुष्पदंत का काव्य समृद्ध है । डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन का मत है - "स्वयंभू की अपेक्षा पुष्पदंत में श्लिष्ट उपमा की प्रवृत्ति अधिक है ।"16 महाकवि स्वयंभू की तरह पुष्पदंत भी “जिनपूजा" के प्रसंग में उपमाएँ देते हैं - "हत्यिहडा इव. घंटा मुहल वर नरवईसेवा इव सहल । वेता इव दरसिय बप्पणीय.............. ॥"(महापुराण) उत्प्रेक्षा-अलंकार महाकवि पुष्पदंत को भी स्वयंभूदेव की भाँति प्रिय है और वे उत्प्रेक्षाओं की झड़ी लगा देते हैं। राम-सीता विवाह-प्रसंग में कवि की उत्प्रेक्षाएँ दर्शनीय हैं - "वइदेहि धरिय करि हलहरेण णं विज्जलु धवले जलहरेण । णं तिहुहण सिरी परम्पएल णं गायवित्ति पालिए-पएण ॥"17 __ अनन्वय, उदाहरण, निदर्शना, रूपक, उल्लेख, व्यतिरेक, विरोधाभास आदि प्रमुख अलंकारों का यथास्थान मनोहारी प्रयोग पुष्पदंत ने किया है। यहाँ विरोधाभास का एक अनुपम उदाहरण द्रष्टव्य है - "सुवतया अवतया रसंकिया वसुज्झया। सरूवया अरूवया सुगंधया अगंधया। सकारणा अकारणा ससंभया असंभया।"18 "महापुराण" की प्रारंभिक स्तुतिपरक संधियों से यमक तथा श्लेष अलंकार के उदाहरण प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं। निःसन्देह, अलंकारविधान की दृष्टि से महाकवि पुष्पदंत वरिष्ठ कवि सिद्ध होते हैं ।
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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