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जनविद्या
- जग में प्रवेश करता हुआ वसन्त शोभायमान हो रहा है। अभिनव सहकार (आम्र) वृक्षों से महकता हुआ, मधुशाला की भांति मधु-धाराओं में प्रवाहित होता हुआ, हेमन्त की प्रभुता को निर्जित करता हुआ, अपनी पहचान के संकेतों को दसों दिशाओं में भेजता हुआ, नवांकुरों से भासमान होता हुआ, पल्लवों से हिलता हुआ, वापिकाओं के जलरूपी चीर को हटाता हुआ, उनके नीचे शैवालों के किनारे दिखाता हुआ, दिनकर के तीव्र किरण-प्रताप को तथा दिन की दीर्घता को प्रकट करता हुआ, अशोक के पल्लवों की वृद्धि करता हुआ, दुष्ट फागुन से अशोक वृक्ष की मुक्ति की सिद्धि को प्रकाशित करता हुआ, मौलश्री की सर्वांग शोभा को वृद्धिंगत करता हुआ, वन-लक्ष्मी के प्रोसरूपी आंसुओं को पोंछता हुआ, तिलक वृक्षों के पत्तों को तिलक की शोभा देता हुआ, लतारूपी कामिनियों में रस उत्पन्न करता हुआ, प्रियों के कामुक मनों को आहत करता हुआ, कनेर के कुसुमपराग को धूसरित करता हुआ, मानिनियों के मानरूपी पर्वतों को जर्जर करता हुआ, भ्रमणशील भ्रमरावलि से गुन-गुन करता हुआ, उत्तमांगों से सहित वृक्षों पर दिन व्यतीत करता हुआ, मन्दार-प्रसूनों की पराग से महकता हुआ एवं रमण की अभिलाषा के विलास को उत्पन्न करता हुआ वसन्त आ पहुंचा (महापुराण 70. 14. 1-11)।
इस प्रकार अलंकार सादृश्य और विभिन्न उपमानों के साहचर्य से रमणीय भावों की अभिव्यक्ति अपभ्रश के महाकवियों की शैली विशेष रही है। प्रकृति के इन विभिन्न उपमानों की संयोजनाओं के द्वारा भावों की अभिव्यंजना की जाती है जो असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य के अन्तर्गत निरूपित की जाती है। यथार्थ में महाकवियों की सृष्टि ही अभिव्यंजना की है। इसमें प्रकृति का प्रयोग कहीं मानवीकरण के रूप में होता है तो कहीं रूपों को ही भावात्मक बनाने के लिए सहज-स्वाभाविक या चमत्कारपूर्ण संवेदनशीलता परिलक्षित होती है।
___ काव्य में प्रकृति की प्राचीन परम्परा के सन्दर्भ में डा० रघुवंश का यह कथन यथार्थ है- अपभ्रंश साहित्य में संस्कृत साहित्य के आदर्श का पालन तो मिलता है, पर एक सीमा तक । इसमें स्वच्छन्द प्रवृत्तियों का समन्वय भी हुआ है। यह भावना जनजीवन के सम्पर्क को लेकर है। जैन कवियों में धार्मिक चेतना अधिक है और राज्याश्रित कवियों के सामने संस्कृत तथा प्राकृत के आदर्श अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसके उपरान्त भी अपभ्रश का कवि जन-जीवन से अधिक परिचित है और अपने साहित्य में अधिक उन्मक्त वातावरण तथा स्वच्छन्द भावना का परिचय देता है। हम देखेंगे कि इसी स्वच्छन्द भावना को हिन्दी साहित्य के मध्य-युग ने और भी उन्मुक्त रूप से अपनाने का प्रयास किया है।'
1. रघुवंश : प्रकृति और काव्य, द्वितीय संस्करण, 1960, पृ० 103 2. लेविस, सी०डे० : द पोयटिक इमेज, पृष्ठ 17 3. लेविस, सी०डे ० : द पोयटिक इमेज, जोनाथन केप पेपरबेक, लंदन पृष्ठ 22 4. सिंह, डा. केदारनाथ : आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्बविधान, ज्ञानपीठ प्रकाशन,
नई दिल्ली। पृष्ठ 39 5. वही, पृष्ठ 39 .... . 6. रघुवंश : प्रकृति और काव्य, द्वितीय संस्करण, दिल्ली। 1960, पृष्ठ 107 7. वही, पृष्ठ 109
सी पष्ठ 109
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