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________________ महाकवि पुष्पदंत और उनका काव्य - डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण' भारतीय आर्य भाषाओं के विकासक्रम का अध्ययन करनेवाले विद्वानों ने संस्कृत के साथ-साथ जन-भाषा के रूप में "प्राकृत" के अस्तित्व एवं प्रचलन को स्वीकार किया है। ईसा पूर्व 500 से लेकर 1000 ईसवी तक प्राकृत भाषाओं को साहित्य रचना का प्राधार माना गया है। प्रारंभ में विद्वानों ने स्पष्ट विभाजक बिन्दुओं के अभाव में यद्यपि प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय प्राकृत के रूप में प्राकृतों का विभाजन किया, तथापि बाद में इन्हें निश्चित नाम दे दिये गये और प्राकृतों को क्रमशः पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश कहा गया। प्राकृत भाषाओं के अध्येताओं ने कालान्तर में ईसवी सन् के प्रारंभ के पश्चात् प्राकृत भाषा में परिवर्तन देखना प्रारंभ किया और 5वीं शती से अपभ्रश साहित्य का समारंभ स्वीकार किया । निश्चित प्रमाणों के अभाव में अपभ्रंश भाषा की रचनाओं में विद्वानों ने महाकवि स्वयंभूदेव की महाकाव्य कृति “पउमचरिउ" को अपभ्रंश की आदि रचना माना है। यद्यपि महाकवि स्वयंभूदेव ने "चतुर्मुख" जैसे कवियों का उल्लेख किया है, किन्तु इन कवियों की रचनाएं अद्यावधि न मिल पाने के कारण स्वयंभूदेव को ही "अपभ्रंश का पादिकवि" स्वीकार किया जाता है। अपभ्रंश की प्रबंध-काव्यधारा में महाकवि स्वयंभूदेव के पश्चात् जिस महाकवि को सर्वाधिक गौरव एवं प्रसिद्धि मिली है वे हैं महाकवि पुष्पदंत । यशस्वी महाकवि पुष्पदंत द्वारा रचित "महापुराण" अपभ्रंश की ऐसी विशिष्ट कृति है जिसमें जैनधर्म, जैनदर्शन, जैन-संस्कृति, समाज एवं कला का सजीव चित्रण तो हुआ ही है साथ ही हिन्दूधर्म में बहुमान्य "राम" एवं “कृष्ण" की कथाओं का भी विशद चित्रण हुआ है। महाकवि
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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