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________________ जैनविद्या 23 लिए कमल, रूप के लिए विद्युत्, मुख के लिए रक्तकमल, तोरण के लिए इन्द्रधनुष, काले रंग के लिए नीलकंठ-तमाल, श्याम वर्ण के लिए अंजन, आंसू के लिए प्रोस, कामिनी के लिए लता, स्वच्छ शरीर के लिए हिमकण का हार, नायक के लिए शुक, वसंत के लिए सिंह, हार के लिए जल-कण, रमणी के लिए बिजली, कर के लिए कमल, कीर्ति के लिए लता कुसुम, वन के लिए अशोक वृक्ष, विमान के लिए शिविका (पालकी), शीतलता के लिए हिम, कान्ति के लिए हिमतार, मोती, चन्द्र आदि उपमानों का प्रयोग किया गया है। महाकवि की कल्पना-शक्ति अत्यन्त उर्वर है। कल्पना के चमत्कारपूर्ण प्रयोगों से उन्होंने बहुविध उत्प्रेक्षाओं में वस्तुगत भावों को स्पर्श करने का सफल प्रयत्न किया है। इस प्रकार वर्णनों में न तो उक्ति वैचित्र्य और न ही क्लिष्ट कल्पनाओं का प्राश्रय लिया गया है, वरन् आलंकारिक शैली में स्वाभाविक चित्रों की उद्भावना में अपनी "नवनवोन्मेष" प्रतिभा का सुन्दर प्रदर्शन किया गया है। महाकवि कालिदास की कलात्मक स्वभाविक चित्रमयता की भांति कहीं-कहीं व्यंजनात्मक सुन्दर प्रयोग किये हैं। प्रकृति की रंगीन चित्रशाला को प्रकृति के ही सुन्दर बिम्ब-विधानों के द्वारा सादृश्य के आधार पर प्रस्तुत करने में अद्वितीय हैं। किन्तु कहीं-कहीं वस्तु तथा भाव को चित्रमय बनाने के लिए "सेतुबन्ध" की भांति अलंकारों का कलात्मक प्रयोग भी किया गया है। उदाहरण के लिए सम्राट भरत ने सिन्धु सरिता का अवलोकन इस प्रकार किया - जैसे विलास को धारण करने वाली सुन्दर वारांगना हो, मद का प्रदर्शन करनेवाली मानो हस्ति-घटा हो, विबुधों (देवों, पण्डितों) के आश्रित होते हुए भी जिसने जड़ (मूर्ख, जल) का संग्रह किया है, जो वन की अग्नि (दावाग्नि) के समान है, जिसकी जड़ता (अचेतनता, जल) घुल गई है वह युद्ध-वृत्ति (खड्ग, मत्स्य) से सुशोभित है । वृहस्पति की मति की भांति जो तीव्र बुद्धिवाला कुटिल है और मानो निर्वाण की भांति मल विनाशक है। जो धनुर्यष्टि के समान मुक्तसर (मुक्त बाण, मुक्त तीर) है और जिसमें वसुधा की भांति अनेक राजहंस शोभा को धारण करते हैं । जो कमल की भाँति कोष-लक्ष्मी को धारण करती है, राजा की शक्ति का अनुसरण करती है जो चंचल सारसरूपी पयोधरों को धारण करनेवाली शुकों के पंखों की हरित पंक्ति से हरे-भरे हैं, क्रीड़ा करते हुए श्वेत बगुलों से शोभायमान तथा खिरती हुई कुसुमपराग से पीले हैं मानो रंगीन श्रेष्ठ उत्तरीय धारण किया हो अथवा श्रृंगार के कारण जो रंग-बिरंगी हैं। गज, अश्व एवं चन्दन रस से मिश्रित तथा मयूर के पंखों के समान केश वाली सरिता रूपी नायिका उसी प्रकार परस्पर मिल जाती है, जिस प्रकार कोई चतुर मुग्धा अनुरक्त नागर जन से मिल जाती है। सिन्धु-सरिता के पट पर राजा ने डेरा ही डाला था कि इतने में दिनकर अस्ताचलगामी हो गया । मानो पश्चिम दिशा रूपी कामिनी में आसक्त (अनुरक्त) मित्र (सूर्य) ही फिसल पड़ा हो (महापुराण 13-7. 1-10)। इसी प्रकार भरत और बाहुबली को युद्ध के लिए उचत देखकर कहा गया है - माप दोनों धरती रूपी महिला के बाहु-दण्ड हैं। आप दोनों राज्य के न्याय में कुशल हैं, अपने पिता के पाद-पद्म रूपी कमलों के भ्रमर हैं, आप दोनों ही जनता के नेत्र हैं । इसी प्रकार किसी विलासी नायक के रूप में वर्णित वसन्त का वर्णन चित्रमाला के रूप में प्रस्तुत किया गया है । देखिये, क्या सुन्दर चित्र है -
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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