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________________ जनविद्या स्वयंभू "पउमचरिउ" में लंका नगरी का वर्णन करते हुए कहते हैं - "उस पर्वत शिखर की पीठ पर लंका नगरी ऐसी शोभायमान थी जैसे महान् गज की पीठ पर नई दुलहिन ही सज-धज कर बैठी हो।" प्रथम बार लंका नगरी को देख कर सीतादेवी के उपचेतन मन में जो बिम्ब उभरा वह कितना सार्थक है कि रनिवास में जिस तरह सज-धज कर नई दुलहिन बैठी हो, उसी तरह भली-भांति श्रृंगारित लंका नगरी भी शोभायमान हो रही थी। दोनों में सहज स्वाभाविक साम्य है। इसी प्रकार राम की निन्दा सुन कर हनुमान् दावाग्नि के समान प्रदीप्त हो उठते हैं। यही नहीं, नन्दन वन के विध्वंस हो जाने पर उच्छिन्न वृक्षों की भूमि उसी प्रकार अवशिष्ट रहती है, जिस प्रकार नकटी वेश्या। इस तरह के अनेकों बिम्ब "पउमचरिउ" में भरे हुए हैं। ___महाकवि पुष्पदंत बिम्बों के विशिष्ट विधायक हैं। बिम्बों की मूल संचेतना उनके काव्यों में अभिव्यंजित-परिलक्षित होती है। बिम्ब काव्य की जीवन्त चेतना के प्रतीक हैं । संवेदना उसकी प्राणशक्ति है। इसलिए बिम्ब को संवेदनों का शब्दांकित चित्र माना गया है। यदि लेविस बिम्ब विधान को कविता के जीवन्त विकास का अविच्छेद्य अंग मानते हैं, तो रिचर्ड स बिम्ब का महत्त्व इसलिए मानते हैं कि वह संवेदना का ही प्रस्तुत अवशेष होता है। उसमें कवि की अनुभूति की सूक्ष्मता, सान्द्रता, तीव्रता तथा व्यापकता को विभिन्न उपमानों के द्वारा संवेदनशील शब्द-चित्र के रूप में चित्रित किया जाता है। लंका नगरी में सीतादेवी को जो वस्त्र पहनने के लिए दिये गये, उनका बिम्ब प्रस्तुत करता हुआ कवि वर्णन करता है - .....सूक्ष्म, उत्तम, चन्द्रमा की भाँति श्वेत, रामचन्द्र की कीर्ति की भांति लम्बे, विपुल और शुभ्रतर वसन-परिधान सीतादेवी के लिए दिये गये (महापुराण 73, 28, 13-14)। महाकवि ने अपनी रचनाओं में अनेक नये उपमानों तथा बिम्बों का प्रयोग कर अपभ्रंश साहित्य को आधुनिक कविता के तुल्य बहुत पहले ही गौरवशाली पद पर प्रतिष्ठित कर दिया था। उनके कुछ उपमान हैं - पर्वत के लिए गेंद, समुद्र के लिए गोपद, पवित्रता के लिए धर्म, सम्पत्ति के लिए समता, पावस के लिए राजा, गज के लिए मेघ, काले मुख के लिए गर्भिणी के उरोज, नन्दनवन के लिए लक्ष्मी का यौवन, लाल नेत्रों के लिए गुजाफल, शत्रु योद्धाओं के लिए ताड़वृक्ष के फल, सेना के लिए नई कृपाण, बाणों के समूह के आवरण के लिए नववधू, राम के लिए नन्दनवन, महान् के लिए सुमेरु पर्वत, श्याम के लिए भ्रमर, उज्ज्वल के लिए विद्युत्, श्यामल के लिए नीलकमलदल, कोमल के लिए अभिनव लता, गुण के लिए सोपान, संसार के लिए वन, लाल नख के लिए पद्मरागमणि, धवल के लिए चन्द्रमा, स्वर के लिए डिडिम, कान्ति के लिए तुहिनतार-मुक्ताफल, अचल मुनिवर के लिए सुमेरु पर्वत, अत्यन्त उच्च के लिए गिरि, तेज के लिए दिवाकर, चंचल के लिए पाहत तृण-जलकण, कुटिल भाव के लिए दासी, नयन के लिए नवनलिन, हाथ के लिए ऐरावत की सूड, सारस युगल के लिए कान्ता के स्तनरूपी कलशयुगल, गंगा की तंरग के लिए त्रिवलि-तरंग, विकसित कमल के लिए कान्ता का मुखकमल, प्राकाश के लिए प्रांगण, गौर वर्ण के लिए चम्पक पुष्प, उज्ज्वल दांतों के लिए जुही के पुष्प, मुजा के
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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