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आचार्य प्रवचन*
मैत्री-भावना
सत्त्वेषु मैत्री गणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव ।।
सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री हो, गुणियों के प्रति अनुराग हो, मेरा मानस क्लान्त मनुष्यों के प्रति कृपापरायण हो, मेरी आत्मा विपरीत आचरण करने वालों के प्रति मध्यस्थ रहे।
इस प्रकार की पवित्र प्रभावना से भावित मनुष्य कल्याण पथ पर अग्रसर होता है। वैसे तो शत्रु और मित्र हर व्यक्ति के होते हैं, कहा भी गया है
सज्जन जाके सौ नहीं, दुश्मन नहीं पचास,
तिण जन को जननी जणी, भार मुई नौ मास । शन और मिन रहें, इसमें कोई आपत्ति नहीं है। आपत्ति वहां खड़ी हो जाती है, जहाँ शत्रु के साथ शत्रुता और मिन के साथ मित्रता का व्यवहार किया जाता है। जो व्यक्ति महान् होता है वह शत्रु को भी शन्नु बुद्धि से नहीं देखता। उसका यह प्रतिक्षण चिन्तन रहता है कि मेरा कोई शन्नु नहीं है। भगवान महावीर के शब्दों में 'मित्ती मे सव्व भूएसु' मेरी सब प्राणियों के साथ मैत्री है। किसी की ताकत नहीं है जो मेरे साथ शत्रुता का व्यवहार कर सके । यहाँ तक कि मुझे मारने को उद्यत मनुष्य भी मुझे मार नहीं सकता। मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं हूं। शरीर नश्वर है, आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है। मनुष्य का कोई शत्रु या मित्र बन सकता है तो उसकी आत्मा ही बन सकती है। सत्प्रवृत्त आत्मा मनुष्य को अध्यात्म की ऊंचाई पर ले जाती है और दुष्प्रवृत्त आत्मा उसे पतन की ओर ले जाती है । ऐसा प्रशस्त चिन्तन जिस व्यक्ति का होता है, वही अनुकूलता और प्रतिकूलता में मध्यस्थ रह सकता है। *आचार्य श्री तुलसी के प्रवचन से।
तुलसी प्रज्ञा
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